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________________ ३८३ अष्टादशं पर्व बभाषे भीषणः पार्थस्त्वं गुरुर्मे महागुणः । कथं योयुध्यते साकं त्वया सन्मयशालिना ॥१३१ त्वं भो याहि निजं स्थानं जेनीयेऽहं रिपून्परान् । अगदीद्रोण इत्युक्ते पार्थ सो भवाधुना।। प्रहारं देहि देहि त्वं दोषो नास्त्यत्र कश्चन । पार्थोऽभाणीद्रयातीतः प्रथमं मुंच मार्गणान् ॥ पश्चात्सेवां करिष्यामि हरिष्यामि महाबलम् । तदा तौ गुरुशिष्यौ हि रणं कर्तुं समुद्यतौ॥ वीक्ष्यमाणौ सुरौघेणान्तरीक्षे क्षिप्रमुद्धतौ । गुरुर्विशतिबाणैश्च च्छादयामास पुष्करम् ॥१३५ पार्थस्तान्खण्डयामासार्धपथेऽथ समुद्धतः । पुनर्लक्षशरान्द्रोणो मुमोच मघवात्मजं ॥१३६ सोऽपि द्विलक्षवाणैश्च ताञ्जघान महाशरान् । वीक्षितो जयलक्षम्या च सव्यसाची शुभंकरः।। तावदुत्सारितो द्रोणो रणात्तनन्दनो महान् । अश्वत्थामा समापाशु संगरं रणकोविदः॥ तौ केशरिकिशोराभौ बद्धामरौं मदोद्धतौ । युयुधाते महायोधौ द्रोणपुत्रार्जुनौ रणे ॥१३९ अश्वत्थामा हयौ तावद्रथस्थौ हतवान्हठात् । बीभत्सस्तौ तथा भूमौ पतितौ गतजीवितौ ॥ अश्वत्थामा महाबाणैर्गाण्डीवगुणमच्छिनत् । अन्यां ज्यां च समारोप्यार्जुनो धनुषि तत्क्षणम् जघान द्रोणपुत्रस्य हृदयं हृदयंगमः। सव्यसाची शरैः शीघ्रं धनुषा प्रेरितैः स्फुटम् ॥१४२ नेवाले हैं। आपके साथ मैं कैसे युध्द कर सकता हूं अर्थात् गुरुके साथ शिष्यका युध्द करना अनुचित है। इस लिये आप अपने स्थानपर चले जाईये, मैं अन्य शत्रुओंको मारूंगा” इस तरह बोलने पर आचार्यने कहा ' हे अर्जुन अब युध्दके लिये सज्ज हो, मेरे ऊपर प्रहार कर । इस प्रकार प्रहार करनेमें कुछ दोष नहीं है। तब अर्जुन निर्भय होकर कहने लगा कि, " हे गुरो आपही प्रथम मेरे ऊपर बाण छोड दीजिये। तदनंतर मैं आपकी सेवा करूंगा । आपका महाबल नष्ट करूंगा। ऐसा अर्जुनने कहा और अनंतर वे गुरु शिष्य लडने के लिये उद्युक्त हुए॥१३०-१३४॥ उध्दत ऐसे गुरु शिष्य आकाशमें देवोंके द्वारा शीघ्र देखे गये। गुरुने वीस बाणोंसे आकाश आच्छादित किया और उध्दत अर्जुनने आधे मार्गमें उनको खण्डित किया। फिर गुरुने लक्ष बाण अर्जुनके ऊपर छोडे और अर्जुनने दो लक्ष बाण छोडकर उनके द्वारा गुरुके बाण सब तोड दिये। शुभंकर-शुभकार्य करनेवाला अर्जुन जयलक्ष्नीके द्वारा देखा गया। तब द्रोणाचार्य रणसे निवृत्त किये गये और उनका महाशूर पुत्र अश्वत्थामा,जो कि युध्दका ज्ञाता था उसने युध्दभूमिमें प्रवेश किया ॥ १३५-१३८ ॥ जिनको कोप उत्पन्न हुआ है ऐसे मदोध्दत सिंहके बच्चोंके समान वे दो महायोध्दा अश्वत्थामा और अर्जुन रणमें लडने लगे। रथको जोडे हुए अश्वाथामाके दो घोडे अर्जुनने अपने सामर्थ्यसे मारे। वे जमीनपर पडकर प्राणरहित हुए। अश्वत्थामाने महाबाणोंसे गाण्डीव धनुष्यकी डोरी छिन्न की तब अर्जुनने अपने धनुष्य पर दुसरी डोरी चढादी और तत्काल हृदयंगमसुंदर अर्जुनने धनुष्यके द्वारा प्रेरे गये बाणोंसे स्पष्टतया और शीघ्र द्रोणपुत्रका हृदय विध्द किया जिससे अश्वत्थामा शीघ्र भूमिपर गिर गया और मूछित हुआ। तब उत्तर-सारथि अर्जुनको इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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