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पाण्डवपुराणम् तदा वृहबटो व्यक्तं प्रोवाच नृपनन्दनम् । अहो हो भज्यते युद्धे कथं वै त्वयका प्रभो ॥५३ विदधासि कुलं लज्जाकुलं राज्ञो महामते । अर्जुनः सारथिः प्राप्तः पुण्यात्तेत्राहमुत्कटः॥५४ ततस्त्वं कातरो वीर मा भूया दरदारक । मया सह रणे शत्रूजहि हन्त रणोद्धतान् ॥५५ एवं समुच्यमानेऽपि स मुमोच समुच्चयम् । आहवस्य रथं तूर्ण स्म निवर्तयति स्वयम् ॥५६ ताव गृहबटो वाणी प्रोवाच शृणु नन्दन । सोऽहं पार्थः प्रसिद्धात्मा मा संशीतिं भजस्व भोः । स्थिरीभव भयातीतो भूत्वा सज्जो विसर्जय । शराशत्रुसमूहस्य शिरश्छेत्तुं समुत्कटान् ॥५८ दुर्योधनबलं बाणैर्विभज्य भयविद्रुतम् । विधास्यामि क्षणार्धेन पश्य मे प्रबलं बलम् ॥५९ अनेन वचसा यावद्विश्वे विश्वासवर्जिताः । न विश्वसन्ति पार्थ चेमं चेतसि भयाविलाः॥६० तावच्छकात्मजो युद्धे रथं तूर्णमवाहयत् । उत्तरं सारथिं कृत्वा वाजिवाहनतत्परम् ॥६१ रथं वाहय वेगेन त्वमुत्तर रणाङ्गणे । अहं हन्मि शरैः शत्रून्यथा नश्यन्ति तेऽखिलाः ॥६२ कृत्वा शत्रुजयं क्षत्तः समुपायं यशश्चयम् । यास्यामो जयसंपन्नास्वपुरं पुण्यसंपदा ॥६३ इत्युक्त्वा तिष्ठ तिष्ठेति स्थिरं वैरिगणो रुवम् । वदन्नेवं चचालासौ स्यन्दनस्थो धनंजयः॥
कुछ उत्तर न देकर वह वहांसे भागनेको उद्युक्त हुआ ॥ ४९-५२ ॥ उस समय बृहन्नटने राजपुत्रको स्पष्ट कह दिया, कि हे राजपुत्र, हे स्वामिन् इस युद्धसे क्यों भागते हो? तुम महाबुद्धिमान् हो। राजा विराटके कुलको लज्जासे क्यों अवनत कर रहे हो। तुम्हारे पुण्यसे मैं अर्जुनका युद्धकुशल सारथि प्राप्त हुआ हूं। इस लिये हे वीर, तुम मत डरो। तुम भयको दूर करनेवाले बनो। युद्धमें युद्ध करनेके लिये उद्धत ऐसे वीरशत्रुओंको तुम मेरे साथ होकर मार डालो ॥ ५३-५५ ॥
[गोहरण करनेवालोंके साथ अर्जुनका युद्ध ] अर्जुनके आश्वासन देनेपरभी वह उत्तरराजपुत्र युद्धकी सामग्री छोडकर स्वयं अपना रथ नगरके तरफ लौटाने लगा। तब अर्जुनने कहा, कि हे राजपुत्र “ मैं प्रसिद्ध अर्जुन हूं" तुम बिलकुल संशयरहित हो जावो । तुम स्थिर हो जावो । भयको मनसे निकाल दो और सज होकर शत्रुसमूहके मस्तक तोडनेके लिये तीव्र बाणसमूह छोडो ॥५६-५८ ॥ मैं दुर्योधनका सैन्य बाणोंसे तोडकर क्षणार्धमें भयसे भागनेवाला कर देता हूं तुम मेरा प्रबल सामर्थ्य देखो । अर्जुनके इस वचनसे भी सब विश्वासरहित हो गये। डरके मारे मनमें अर्जुनके ऊपर उन्होंने विश्वास नहीं रखा ।। ५९-६० ॥ उतने में उत्तरको अर्जुनने सारथि किया। वह घोडोंको चलानेमें तत्पर हुआ, अर्जुनने इस प्रकार रथको युद्ध में चलाया । " हे उत्तरकुमार, तुम रथको रणांगणमें वेगसे चलाओ, शत्रु जैसे शीघ्र नष्ट होंगे उस उपायसे मैं उनको बाणोंसे मारूंगा। हे सारथे, शत्रुओंको जीतकर और विपुल यश प्राप्त कर पुण्यसंपदासे जयशाली होकर अपने नगरको अपन लौटेंगे"। ऐसा बोलकर, हे वैरियों, ठहरो, स्थिर ठहरो, मैं आ रहा हूं" ऐसा बोलकर अर्जुन रथमें बैठकर चलने लगा ॥ ६१-६४ ॥ महान् उत्तरसारथि वेगसे अपना रथ चलाने लगा और
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