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________________ अष्टादशं पर्व ३७७ निरुत्तरं प्रकुर्वाणो विपक्षं स महोत्तरः । सारथिः स्वरथं यावत्संवाहयति वेगतः ॥६५ ज्वलनो निर्जरस्तावत्प्रसन्नः पार्थसाहसात् । नन्दिघोषाभिधं तस्मै समर्थ रथमाददे ।।६६ देवताधिष्ठितं पार्थो रथमारुह्य संयुगे । शत्रून्हन्तुं चचालासौ कृत्वोत्तरं सुसारथिम् ॥६७ तं तादृशं समावीक्ष्य द्रोणाचार्यस्तु विस्मितः । उवाच कौरवान्क्रूरान्कृतकोदण्डमण्डलान् ॥ संगरे संगरं मुक्त्वा यूयमद्यापि निश्चितम् । विधत्त संधिमुन्निद्रा यद्युष्माकं सुखं भवेत् ॥ केऽत्र पार्थशरान्सोढुं समर्थाः सन्ति भूभुजः । दावाग्नी दीपिते दारुचयास्तिष्ठन्ति किं पुनः॥ कपटप्रकटा हित्वा कपटं गोकुलं पुनः। संगरं प्रीतिमुत्पाद्यं यूयं यात निजे गृहे ॥७१ आगता गृहतो यूयं दुनिमित्तशतानि वै । यदाभवंस्ततस्तूर्णं निवर्तयत निश्चितम् ॥७२ इत्याकर्ण्य महाक्रोधादधिरारुणलोचनः । दुर्योधनो जगादैवं योद्धं योद्धन्विलोकयन् ॥७३ द्रोण विद्रावणं वाक्यं किं वक्षि नयवर्जितम् । वैरिणां शंसने कोजावसंरस्ते रणाङ्गणे ॥७४ क्रुद्धे मयि च कः पार्थः कस्त्वं दुर्बलमानसः । क्षत्रियाणां न जानासि मार्ग सर्गसमुत्कटम् ॥ कर्णोऽवोचद्रथस्थोऽपि भो गाङ्गेय गुरो शृणु । केनाहं निर्जितो दृष्टो रणे च त्वयका बली ॥ धनंजयने शत्रुओंको निरुत्तर किया ॥ ६५ ॥ इतनेमें पार्थका साहस देखकर प्रसन्न हुए अग्निनामक देवने नन्दिघोष नामका समर्थ रथ दिया। उत्तरराजपुत्रको अर्जुनने सारथि बनाया। देवताधिष्ठित रथमें अर्जुन बैठ गया और शत्रुओंको मारनेके लिये युद्ध में चला गया ॥ ६६-६७ ॥ देवके दियेहुए रथमें बैठे हुए अर्जुनको देखकर द्रोणाचार्य आश्चर्य चकित हुए। जिन्होंने धनुष्योंको मण्डलाकार किया हैं, ऐसे क्रूर कौरवोंको वे कहने लगे, कि “ हे कौरवो, तुम सुख चाहते हो तो युद्ध छोडकर जागृत होकर अब भी निश्चयसे संधि करो। इस जगतमें अर्जुनके बाण सहन करनेमें कौन राजा समर्थ हैं ? प्रज्वलित हुए दावाग्निमें लकडियोंका समूह जले बिना कैसा रहेगा ? कपट करनेमें तुम लोग प्रसिद्ध हो परंतु अब कपट, गोकुल और लडना तुम्हें छोडना पडेगा। तुम्हें पांडवोंके साथ प्रीति उत्पन्न करके अपने घरको चले जाना योग्य होगा। जब तुम घर छोडकर यहां आये, तब सैंकडो अशुभ शकुन हुए थे। इस लिये इस समय तुम्हारा लौटनाही निश्चयसे हितकारक होगा।" इस प्रकारका द्रोणाचार्यका भाषण सुनकर दुर्योधनकी आंखें तीव्र क्रोधसे रक्तके समान लाल हो गई। युद्धके लिये आये हुए योधाओंको देख दुर्योधन इस प्रकार कहने लगा ॥ ६८-७३ ॥ “ हे द्रोणाचार्य आप न्यायरहित और शत्रुको उत्तेजन देनेवाला भाषण क्यों बोलते हैं ? इस रणांगणमें शत्रुकी प्रशंसा करनेका अवसर नहीं है। मेरे क्रोधके सामने अर्जुन क्या चीज है और दुर्बल मनवाले आप भी क्या चीज हैं ? आप निश्चयसे क्षत्रियके दृढ मार्गको नहीं जानते हैं " उस समय कर्णने भीष्माचार्यसे कहा- “हे भीष्माचार्य गुरो, मेरा भाषण आप सुनो " रथमें बैठकर युद्ध करनेवाला बलवान् मैं रणमें किसीके द्वारा कभी जीता गया हूं ऐसा आपने पां. १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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