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पाण्डवपुराणम् इत्याभाष्य विशुद्धात्मा जहार द्रौपदी सतीम् ।
धावन्ति स्म तदा क्रुद्धाः कौन्तेयाः कृन्तितुं सुरम् ॥१६५ तावन्मद्रीसुतौ तूर्ण दधावतुर्महाकुधौ । जल्पन्ताविति वेगेन सुपर्वाणं वरत्विषम् ॥१६६
क यासि रे महावीर हृत्वेमा सुन्दरी वराम् ।।
मार्यमाणं स्वमात्मानं किं न जानासि सत्वरम् ।। १६७ यत्र यत्र सुरो याति पाञ्चाल्या सह पावनः। तत्र तत्राटतुस्तूर्ण मद्रीपुत्रौ मनोहरौ ॥१६८ पिपासापीडितो तावजातौ तौ निर्जले वने । जग्मतुः कापि पानीयं पातुं पीवरसद्भजौ ॥ निर्मिनोति स्म तावत्स जलकल्लोलसंकुलम् । कमलाकरसंकीर्णं पद्माकरं वृषः सुरः ॥१७० नकुलः सहदेवश्च देवखातं पिपासितौ । पातुं पावनपानीयं पवित्रौ वीक्ष्य तावितौ ॥१७१ अप आपीय पूतौ तौ पतितौ जलयोगतः । न वित्तः स्म च मूर्छाढ्यौ कौचिद्विषजलं यथा।। तदा पार्थो जगादैवं क गतौ भ्रातरौ मम । शीघेण दीर्घकालेन नायातौ किं महाद्भतम् ॥ केन चित्कथिते तावत्तत्स्वरूपे धनंजयः । नत्वा युधिष्ठिरं तूर्ण निर्गतस्तौ विलोकितुम् ।।
ऐसा बोलकर उस विशुद्धात्मा देवने सती द्रौपदीको हर लिया ॥ १६३-१६४ ॥ : [ विषजलपानसे नकुलादिक पांच पाण्डव मूछित हुए ] उस समय क्रुद्ध हुए कुन्तीके सुत युधिष्ठिरादिक उस देवको मारनेके लिये दौडने लगे। महाक्रोधी मद्रीसुत-नकुल और सहदेव, जिसकी कान्ति उत्तम है ऐसे देवको “ हे महावीर इस उत्तम सुंदरीको हर कर तूं कहां जा रहा है। अब जल्दीही तू अपनेको मारा जानेवाला हैं ऐसा क्यों नहीं समझता है ? " ऐसे बोलते हुए बडे वेगसे जहां जहां वह पवित्र देव पाश्चालीको साथ लेकर गया वहां वहां वे शीघ्र दौडकर गये। दौडनेसे उनको प्यासने बहुत सताया, पुष्ट और उत्तम जिनके भुज हैं ऐसे वे नकुल और सहदेव उस निर्जलवनमें कहीं पानी पीने के लिये गये। धर्म-नामक देवने जलतरंगोंसे व्याप्त, कमलोंके समूहसे भरा हुआ तालाव निर्माण किया। जिनको प्यास लगी है ऐसे वे पवित्र नकुल सहदेव सरोवरको देखकर उसका पवित्र पानी पीनेके लिये गये । वे पवित्र दोनों भाई पानी पीकर पानीका संबंध होनेसे जैसे कोई विषजल पीकर मूछित होते हैं, अकस्मात् मूछित हो गये ॥१६५ १७२॥ उस समय अर्जुन कहने लगा कि, मेरे दो भाई कहां गये। शीघ्र आनेवाले इतना दीर्घकाल बीतनेपर भी नहीं आये यह बडा आश्चर्य है। किसीने उन दोनोंका स्वरूप कहा। तब धनंजय युधिष्ठिरको नमस्कार कर शीघ्र उन दोनोंको देखने के लिये निकला। तालावके तीरपर वे दोनों छोटे भाई मृतके समान देखकर अर्जुन खिन्न होकर करुणस्यरसे रोने लगा। " क्या ये दोनो आकाशसे पडे हुए चन्द्रसूर्य हैं ! अथवा महायुद्धमें धर्मपुत्रके ये दो बाहु पडे हैं ? मेरे सुखरूप भाई युधिष्ठिरको अब मैं क्या उत्तर दूं ?" ऐसा दीर्घकाल शोक कर अर्जुनने अपने मनमें धीरता धारण की ॥१७३
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