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समदर्श पर्व
सामे वासरे राजन् कृत्याविद्याप्रमागतः । हनिष्यति हतात्मायं भवतः कनकध्वजः ॥१५४ इति श्रुत्वा सुधर्मात्मा धर्मपुत्रः पवित्रधीः । नासाग्रहनिरीहः सन् निःसंगो निश्चल स्थितः।। शुमध्यानरतः शुद्धो दुःसंसारपरामुखः । समाहितमनास्तस्थौ निमीलितनिजेक्षणः ॥१५६ प्राणीप्सितमुशर्माणि जायन्ते धर्मतो ध्रुवम् । भो भ्रातरः कुरुध्वं हि धर्ममेकं सुसिद्धये ॥ अस्माकं परलोकाय यो वृषः सकलैः स्तुतः। सुरासुरैः सदा भूयाद्विघ्नसंघातघातकः ॥१५८ धर्मः सोऽप्यत्र संसिद्धथै सहायो मे भविष्यति । धर्मतो नापरं विद्धि सातहेतुं सनातनम् ॥ आपदा धर्मतः पुंसां संपदायै भवेल्लघु । ग्रीष्मे सूर्यकरा यद्वत्सुवृक्षाणां फलद्धये ॥१६० इति धर्म स्तुवन्धर्मपुत्रोऽयमवतिष्ठते । तावदासनकम्पेन धर्मदेवः प्रबुद्धधीः ॥१६१ तदुपद्रवमाज्ञाय सहसा स समाययौ । अवामि पाण्डवं वंशं क्षीयमाणं वदनिति ॥१६२ स सुरः प्रकटीभूय जजल्प गूढमानसः । अस्मत्स्थाने स्थिता यूयं कथं सुस्थिरमानसाः॥ अस्मन्माहात्म्यमाज्ञातं भवद्भिः किं पुरा न हि । क्षीयन्तेऽस्मत्प्रकोपेन क्षणार्धेन क्षितौ जनाः
आपको मारनेवाला है ॥ १५३-१५४ ॥
[ नारदका भाषण सुनकर धर्मराज धर्म-ध्यान-तत्पर. हुआ ] नारदजीका भाषण सुनकर पवित्र बुद्धिवाला सुधर्मात्मा धर्मपुत्रने नासाग्रमें अपनी दृष्टि स्थिर की। यह निरिच्छ, परिग्रहत्यागी
और निश्चल हुआ ॥ १५५ ॥ शुद्ध अन्तःकरणवाला वह शुभध्यानमें तत्पर होकर दुःखदायक संसारसे पराङ्मुख हुआ। जिसने अपनी आंखें मूंद ली है ऐसा वह एकाग्रचित्त होकर बैठ गया। " हे भाईयों, तुम अपने शुभकार्यके सिद्धयर्थ एक धर्महीका आराधन करो क्यों कि, धर्मसे प्राणियोको इच्छित सुखोंकी निश्चयसे प्राप्ति होती है। हे बंधुजन, जिस धर्मकी सुरासुरोंने स्तुति की है वह विघ्नसमूहका घात करनेवाला धर्म हमको परलोकके लिये सदा हो। अर्थात् धर्मके आश्रयसेही उत्कृष्ट परलोककी प्राप्ति होती है। वह धर्म यहां भी हमारे कार्य-सिद्धिके लिये सहायक होगा। धर्मसे भिन्न वस्तु चिरंतन सुखका कारण नहीं है। सिर्फ धर्महीसे शाश्वत सुख मिलता है । आपत्ति धर्मके आश्रयसे शीघ्र पुरुषोंको संपत्तिके लिये हो जाती है। जैसे ग्रीष्मकालमें सूर्यके किरण वृक्षोंको फलवृद्धिके कारण हो जाते हैं " इस प्रकार धर्मकी स्तुति करता हुआ धर्मपुत्र बैठा था उतनेमें वस्तुओंके स्वभावोंको जिसकी बुद्धि खूबीसे जानती है ऐसा धर्म नामक देव आसनकम्पनसे पाण्डवोंके उपद्रवोंको जानकर मैं पाण्डवोंके नष्ट होते हुए कुलका रक्षण करूंगा ऐसा बोलता हुआ वहां अकस्मात् आया ॥ १५६-१६२ ।।
[धर्मदेवसे द्रौपदीका हरण ] जिसने अपना अभिप्राय गूढ रखा है ऐसा वह देव प्रकट होकर कहने लगा, कि तुम अतिशय स्थिरमनसे हमारे स्थानमें कैसे बैठे हो ? हमारे माहात्म्यका ज्ञान क्या आपको पूर्वमें नहीं हुआ था ? हमारे कोपसे इस भूतलपर लोक क्षणार्धमें नष्ट होते हैं।
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