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नाथ पन्धनजं ना दुःखं मम यथा तथा । मोचितोऽनेन चेत्युक्तिर्नर्माशर्मप्रदायिनी ॥ मानभगमवाद् दुःखामापरं शर्म हानिदम् । इति संप्रेषितस्तेन प्राप भूपः पुरं परम् ॥१४४ गतो निजपुरं दुःखी चिन्तयामास मानसे । हा हा मे मानुषं जन्म गतं निष्फलतां क्षणात्।। काहं च कौरवाधीशः क मे चित्तसमुन्नतिः। तत्सर्व दलितं तेन रणे मोचयता मम ॥१४६ रणे बद्ध्वा पुनमुक्तः पार्थेनाहं सुदुःखितः। तदुःख केन वायेंत मम प्राणापहारकम्॥१४७ यः कोऽपि मारयत्याशु पाण्डवांश्चण्डशासनान् । स पराभवशल्यं मे समुद्धरति दुर्धरम् ॥ तस्मै ददामि राज्याधं तद्धन्त्रे हतमानसः। कोऽप्यस्ति भवने मर्यो मम दुःखनिवारकः।। इति श्रुत्वा जगौ धीमान्कनकध्वजभूपतिः। सप्तमे वासरे तान् वै हनिष्यामि सुपाण्डवान् ।। न हन्मि चेद्ददाम्याशु खात्मानं पावके भृशम् । इत्युक्त्वा निर्गतो दुर्थीवन ऋष्याश्रमे गतः कृत्यां विद्यां स्थितस्तत्र संसाधयितुमुद्यतः । मन्त्रहोमविधानज्ञः कनकध्वज इत्वरः ॥१५२ तावद्रप्रसुतो ज्ञात्वा गत्वा पाण्डवसंनिधिम् । जगाद मधुरालापैः पाण्डवानां सुखाप्तये ॥
दिया “ हे प्रभो मुझे बन्धनसे वैसा दुःख नहीं हुआ जैसा अर्जुनके द्वारा मुझे बन्धनसे मुक्त किये जानेपर हुआ। मुझे अर्जुनने मुक्त किया यह उक्ति मुझे लजाका दु:ख उत्पन्न करनेवाली है । मान भंगसे उत्पन्न हुए दुःखसे इतर दुःख सुखकी हानि करनेवाला नहीं है " । बन्धनमुक्त कर युधिष्ठिरसे भेजा गया दुर्योधन अपने सुंदर नगरको चला गया ॥ १४२-१४४ ॥ अपने नगरको जाकर दुःखी दुर्योधन अपने मनमें चिन्ता करने लगा " हाय हाय मेरा मनुष्यजन्म एक क्षणमें निष्फल हुआ। मैं सब कौरवोंका स्वामी, कहां मेरी चित्तकी समुन्नति-कहां मेरा मान ? मुझको रणमें बंधनसे मुक्त करनेवाले उस अर्जुनने मेरा सर्व अभिमान नष्ट किया। रणमें बांधकर पुनः अर्जुनने दुःखित हुए मुझे मुक्त किया। उस समयसे मुझे प्राण नष्ट करनेवाला दुःख हुआ है, उसे कौन दूर करने में समर्थ है ? जिनका शासन उग्र है ऐसे पाण्डवोंको जो शीघ्र मारेगा वह मेरा दुर्द्धर पराभवका शस्य निकाल सकेगा और उनको मारनेवालेको जिसका मन दुःखी हुवा है ऐसा मैं राज्याई दूंगा। मेरे इस दुःखको दूर करनेमें क्या कोई पुरुष इस जगतमें समर्थ है ?" ॥१४५-१४९॥ - [कनकध्वजसे कृत्यासाधन ] दुर्योधनका भाषण सुनकर कनकध्वज नामक विद्वान् राजाने इस प्रकारका भाषण किया । “ मैं सातवे दिन उन पाण्डवोंको निश्चयसे मारूंगा। यदि न मारूंगा तो मैं शीघ्रही अग्निमें कूदकर स्वयंको अतिशय जलाउंगा अर्थात् मर जाऊंगा।" ऐसा बोलकर बह दुष्ट बुद्धिका राजा वनमें ऋषिके आश्रममें गया। वहां रहकर ' कृत्या' नामक विद्याको सिद्ध करनेमें उद्युक्त हुआ । उसे मन्त्र, होम जप इत्यादिविधिका ज्ञान था ॥ १५०-१५२ ।। इतनेमें इधर ब्रह्माके सुत नारदने पाण्डवोंके सनिध जाकर पाण्डवोंको सुख हो इस सदिच्छासे मधुर शब्दोंसे कहा। हे राजन् , सातवे दिन कृत्याविद्याके प्रभावसे कनकध्वज नामक दुष्ट राजा
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