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३५१ शिष्येण सह पार्थेशो युयुधे क्रुद्धमानसः । बाणावल्याथ निःशेषं नमः संछादयंस्त्वरा।।१३१ खचरः शरसंघातैश्छादयंश्च धनंजयम् । पश्यामि ते धनुर्वेदं हसमिति महामनाः॥१३२ उत्तस्थे सुरथस्थोऽपि खगश्चित्ररथो स्थम् । वाहयञ्शक्रपुत्रं च संक्रीडितुमिवोन्मतम् ॥१३३ यान्याञ्शरांश्च चित्राङ्गो मुश्चते सव्यसाचिनम् । व्यर्थीकरोति पार्थस्तांस्तान्मेघानिव मारुतः।। दिव्यास्त्रेण समारब्धं पुनयुद्धं सुदारुणम् । ताभ्यां चापसमृद्धाभ्यां क्रुद्धाभ्यां भीरुभीतिदम् ।। चित्राङ्गमुक्तदावाग्नि चिच्छेद जलदेन सः । चिच्छेद जलदं चित्रो वायुना सर्वहारिणा ॥ आबाधयत्तदा वायुं वाडवेन धनंजयः। तन्मुक्तं नागपाशं च गरुडेन जघान सः ॥१३७ तेन मुक्ताशरानेवं व्यर्थीचक्रे धनंजयः । जयलक्ष्मीमवापाशु साधुकारं जनौषतः ॥१३८ तच्छिष्यैः सकलैः पार्थों गुरुभक्त्या नतस्तुतः । दुर्योधनोऽपि पार्थेन प्रीणितो बहुभाषणैः ।। शरसोपानमालाश्च विधाय विधिवद्धः । दुर्योधनं गिरेः शृङ्गात्समुत्तारयति स्म सः ॥१४० आनीय नृपतेः पार्श्वे कौरवं शक्रनन्दनः । मुमोच बन्धनात्खिन्नं बन्धात्खेदो हि जायते ॥ युधिष्ठिरं स संनुत्य नत्वा क्षान्त्वा स्थितो जगी। विपाशीकृत्य संपृष्टः कुशलं धमेजेन च ॥
त्वरासे बाणपंक्तियों द्वारा संपूर्ण आकाशको आच्छादित करनेवाला कुपित-चित्त अर्जुन शिष्यके साथ लडने लगा ॥ १३१ ॥ बाणोंके समूहसे धनंजयको आच्छादित करनेवाला महामना विद्याधर हँसता हुआ कहने लगा, आपकी धनुर्वेद-विद्या मैं देखना चाहता हूं ॥ १३२ ॥ शक्रपुत्र-उन्नत अर्जुनके प्रति अपना रथ मानो क्रीडा करने के लिये ले जानेवाला, रथपर बैठा हुआ चित्ररथ उठकर खड़ा हो गया। जो जो बाण चित्राङ्गने सव्यसाची-अर्जुनके ऊपर छोडे वायु जैसे मेघोंको व्यर्थ करता है वैसे अर्जुनने उन उन बाणोंको व्यर्थ किया ॥ १३३--१३४ ॥ धनुर्विद्यामें समृद्ध-निपुण उन दोनोंने पुनः क्रुद्ध होकर भीरुजनोंको भय उत्पन्न करनेवाले भयंकर युद्धका दिव्यास्त्रों के द्वारा प्रारंभ किया ॥ १३५ ॥ चित्रांगसे छोडे गये दावाग्नि-बाणका छेद अर्जुनने मेघबाणसे किया ।
और चित्रांगने सबको उडानेवाले वायुबाणके द्वारा मेघबाणको तोड डाला। इसके अनंतर वाडवबाणसे धनंजयने वायुबाण बाधित किया। फिर चित्रांगके द्वारा छोडे गये बाण धनंजयने व्यर्थ किये और शीघ्र जयलक्ष्मीको प्राप्त किया तथा लोकसमूहसे स्तुति-प्रशंसा प्राप्त की। अर्जुन अपने सर्व शिष्योंसे गुरुभक्तिसे नमस्कृत हुआ और वे उसकी स्तुति करने लगे। अर्जुनने भी दुर्योधनको अनेक भाषणोंसे संतुष्ट किया ॥ १३६-१३९॥ विद्वान् अर्जुनने विधिके अनुसार बाणोंकी सोपानपक्ति बनाकर पर्वतके शिखरसे दुर्योधनको नीचे उतारा। युधिष्ठिरराजाके पास दुर्योधनको लाकर अर्जुनने बंधनसे खिन्न हुए दुर्योधनको बंधमुक्त किया। बंधसे खेद होना योग्यही है ॥१४०-१४१ ॥ युधिष्ठिरकी दुर्योधन स्तुति और नमस्कार कर तथा क्षमायाचना कर मौनसे बैठा। बन्धमुक्त करनेके अनंतर धर्मराजने दुर्योधनको कुशल प्रश्न पूछा तब दुर्योधनने इस प्रकारका उत्तर
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