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पाण्डवपुराणम्
वो विधीयते यस्तु वहस्तेन मया त्वया । स एव खयमाप्तोऽस्ति परहस्तेन किं शुचा ॥ हसन्तं पावनि ज्येष्ठो वर्जयित्वा वचो जगौ । उत्चमानामयं भावो न याति विक्रियां कचित्।।
दुर्जनैः खिद्यमानोऽपि महानो याति विक्रियाम् ।
राहुणा छाद्यमानोऽपि चन्द्रो नोज्ज्वलतां त्यजेत् ।।१२३ पार्थ बभाण संप्राप्तो धर्मपुत्रस्तवाधुना । विद्यतेऽवसरो नूनं तन्मोचनकृते कृतिन् ॥१२४ : पाण्डवानां जगत्यत्रापकीर्तिर्जायते न हि । यावत्तावद्विमोच्योऽयं कुरूणामधिपस्त्वया ॥१२५ यावन म्रियते तावत्स विमोच्य त्वमानय । मृतेऽस्मिन्पाण्डवानां हि न सौरूप्यं कदाचन ।। इत्युक्तः स दधावाशु सरथः शक्रनन्दनः । मुच्यतां मुच्यतां नेयो न गेहेऽयमिति रुवन् ।। गन्धर्वस्तद्वचः श्रुत्वा स्थितोऽवसरमात्मनः । वीक्ष्यावोचत्प्रकुर्वाणः स्ववीर्य प्रकटं परम् ॥ भवतामस्ति चेच्छक्तिरयं संत्याज्यतां लघु । धनुर्वेदमहाविद्यां दर्शयित्वा निजां पराम् ॥१२९ तावत्सस्यन्दनोऽधावत्सुतारस्तरलस्त्वरा । गन्धर्वपक्षमालक्ष्य विपक्षीभूतमानसः ॥१३०
शिष्य ले जा रहा है यह वार्ता सुनकर भीमसेन कहने लगा, कि यह कार्य तो खूब अच्छा हुआ। कौरवोंका अगुआ दुर्योधन पकडा गया यह ठीक ही हुआ। मेरे हाथमें यदि यह दुर्योधन पडता तो मैं इसको स्वयं मार देता। हे दुर्योधन तूने परहस्तसे वही वध प्राप्त कर लिया है। अब शोकसे क्या फायदा होगा ? ऐसा कहकर हंसनेवाले भीमसेनका ज्येष्ठ युधिष्ठिरने निषेध किया और वह बोला, कि “ भाई भीमसेन उत्तम पुरुषोंका स्वभाव कदापि विकृत नहीं होता है। दुर्जनोंके द्वारा पीडा दी जानेपर भी महापुरुष विकारी नहीं होते है अपनी शांति नहीं खो बैठते हैं। राहुसे आच्छादित किये जानेपर भी चंद्र अपने स्वच्छ प्रकाशको नहीं छोडता है ॥ १२०-१२३ ॥ धर्मराजने अर्जुनको कहा कि "हे विद्वन् पार्थ, अब तुझे दुर्योधनको छुडानेके लिये समय प्राप्त हुआ है । जगतमें पाण्डवोंकी अपकीर्ति होनेसे पहले यह कुरुदेशका स्वामी दुर्योधन तुझसे छुडाया जाना चाहिये और जबतक यह नहीं मरेगा तबतक इसे छुडाकर मेरे पास तू ला इसके मरणसे पाण्डवोंका कभी भला न होगा।” इसप्रकार आज्ञा किया गया वह अर्जुन रथमें बैठकर दौडने लगा और हे विद्याधरो, तुम इस कौरवेश्वरको छोडो छोडो, इसे अपने घरमें मत लिये जावो ऐसा कहने लगा ॥ १२४-१२७ ॥
[चित्रांगदार्जुन युद्ध ] गंधर्व उसका भाषण सुनकर खडा हो गया। अपने अवसरको देखकर अपना उत्तम सामर्थ्य प्रकट करता हुआ वह बोलने लगा, कि हे गुरो, यदि आपका सामर्थ्य होगा तो अपनी उत्कृष्ट धनुर्वेद-महाविद्या हमें दिखाकर इसे शीघ्र छुडाओ ॥१२८-१२९॥ उस समय जिसका मन शत्रु बना है ऐसा सुतार नामका चंचल विद्याधर त्वरासे रथपर बैठकर गंधर्व विद्याधरके पक्षका आश्रय लेकर अर्जुनके साथ लडने के लिये दौडने लगा ॥ १३०॥ अनंतर
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