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समदशं पर्व
३५१ शोकसंतापसंतप्ता नेत्राश्रुजलधारया । सिञ्चन्ती कुं रुदन्ती च भूपतीन्सावदगिरा ॥१०९ अन्योन्यवदनेक्षां च कुर्वन्तः किं नृपाः स्थिताः । मनाथे बन्धनं नीते भवतां का सुखासिका ॥ मोचयध्वं ममाधीशं कौरवाणामधीश्वरम् । अन्यथा भवतां कुत्र स्थास्नुत्वं कीर्तिन्तिनाम् ॥ विलापमुखरां वीक्ष्य रुदन्तीं तां पितामहः । प्राह भानुमती प्रीतां दददाश्वासनामिति ॥११२ किं क्रन्दसि कृपापात्रे किं रोदिषि जने जने । मोचयितुं समिच्छा चेत्पतिं तन्मे वचः कुरु॥ याहि याहि स्नुषे धर्मपुत्रस्य शरणं ध्रुवम् । यतो बन्धविमुक्तिः स्यात्तव पत्युर्दुरात्मनः ।। कृतेऽपि दुर्नये तेन धर्मपुत्रस्तु धर्मधीः । क्षमः क्षाम्यति भूपालान्कौरवान्कृतदूषणान् ॥११५ स धीरो विधुरान्धत धरण्यां धरणीधरान् । समर्थो न जहात्याशु निजं शीलं कदाचन ॥ श्रुत्वा तद्वचनं भानुमती तीव्राशया ततः । गता सबान्धवो यत्र समास्ते धर्मनन्दनः ।।११७ देहि देहि दयाधीश भर्तृभिक्षा सुखावहाम् । मह्यं क्षान्त्वापराधानां शतं शीतल सन्मुख ॥ तावता पार्थशिष्येण विवन्ध्य कौरवं नृपम् । रथे संरोप्य संचेले स्वपुरं स्वःपुरोपमम् ॥११९ नीयमानं नृपं श्रुत्वावादीत्स विपुलोदरः। भव्यं भव्यमिदं जातं यद्धतः कौरवाग्रणीः ॥१२०
अपने प्रियपतिके बंधनकी वार्ता सुनकर अतिरुदन करने लगी। शोकके संतापसे सन्तप्त हुई नेत्रोंके अश्रुजलकी धारासे पृथ्वीको सिश्चित करती हुई, रोनेवाली वह भानुमती इस प्रकार भाषण करने लगी। हे राजगण, अन्योन्यका मुंह देखते हुए आप क्यों चुप बैठे हैं ? मेरा पति बंधनको प्राप्त होनेपर आपको क्या सुख प्राप्त होगा? कौरवोंके स्वामी मेरे पतिको आप छुडावे अन्यथा कीर्तिको नष्ट करनेवाले आपको चिरस्थायित्व कहांसे मिलेगा ! इस प्रकार जोरसे विलाप करके रोनेवाली प्रिय भानुमतीको देखकर आश्वासन देते हुए भीष्माचार्य इस प्रकार कहने लगा ॥ १०८११२ ॥ " हे भानुमति, तुम शोक क्यों करती हो? प्रत्येक मनुष्यके पास जाकर क्यों रुदन करती हो? यदि तुम अपने पतिको छुडाना चाहती हो तो मेरा वचन सुनो" ॥ ११३ ॥ " हे स्नुषे, तुम धर्मपुत्रको निश्चयसे शरण जावो। जिससे तुम्हारे दुष्ट पतिकी बंधनसे मुक्ति होगी। यद्यपि तुम्हारे पतिने अन्याय किया है तो भी समर्थ धर्मपुत्र धर्मबुद्धि मनमें रखनेवाला है। वह जिन्होंने अपराध किये हैं ऐसे कौरवभूपालोंको क्षमा करेगा। वह धीर इस भूतलमें दुःखी हुए राजाओंको धारण करने में उनका दुःख दूर करनेमें समर्थ है। समर्थ लोग अपना शील-स्वभाव कदापि नहीं छोडते है ।" ॥ ११४-११६ ॥ भीष्माचार्यका वचन सुनकर तीव्र आशयवाली भानुमती तदनंतर जहां अपने बंधुओं सहित धर्मराज बैठा था वहां गई ॥ ११७ ॥ हे शीतल, हे शुभमुख, हे दयाके स्वामिन् , सौ अपराधोंकी क्षमा करके मुझे सुख देनेवाली पति-भिक्षा आप दीजिये । उस समय दुर्योधनराजाको बांधकर तथा रथमें आरोपित कर अर्जुनका शिष्य स्वर्गके समान अपने नगरको जानेके लिये उद्युक्त हुआ ॥ ११८-११९ ॥ रथमें आरोपित कर दुर्योधनको अर्जुनका
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