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पाण्डवपुराणम्
संनद्धः क्रोधसंबद्धो दुर्योधनमहीपतिः । स्वबलैर्बलसंपन्नो यया तान् हन्तुमुद्यतः ॥ ७४ एतस्मिन्नन्तरेऽप्यायान्नान र्षिऋषिवद्यमी । चित्राङ्गदसमभ्यण कथयितुं तदागमम् ॥७५ चित्राङ्गद किमर्थं त्वं वने भयसमाकुले । वैरिवर्गसमाक्रान्ते तिष्ठसीति वभाण सः ||७६ भो गन्धर्व सुताराख्य किमर्थं खगनायक । सेव्यन्ते पाण्डवाः स्पष्टं त्वयापि वनवासिनः ॥ चित्राङ्गदो बभाणेति नानर्षे शृणु मद्वचः । अस्माकं गुरुरेवायं गरीयान् श्रीधनंजयः ॥७८ येनेन्द्रः स्थापितो राज्ये निवार्यारिकदम्बकम् । स्वाम्यस्माकमयं पार्थो वयं तत्सेवकाः सदा नानर्षिर्भाषते तच्छ्रु तद्वचनं वरम् । दुर्योधनो रिपुः प्राप्त इदानीमत्र दुर्जयः ||८० यद्येतस्य सुशिष्यत्वमवेदिष्यमहं तव । धार्तराष्ट्रान्क्षणार्धेनाहनिष्यं सकलान् रिपून ||८१ आजन्म ब्रह्मचारित्वं विद्यते मयि निश्चितम् । सदा धर्मरतश्चाहं नारीनामपराङ्मुखः ॥ ८२ योगाङ्गे यो गरिष्ठात्मा पितामहो महामतिः । तद्वाक्यं न प्रकुर्वन्ति कौरवाः कलिकारिणः।। यो द्रोणो विदुरश्व स्तः पितृव्यौ परमोदयौ । तद्वाक्यविरता वैरं वहन्तः सन्ति कौरवाः ॥ इदानीं संगरं कर्तुं संप्राप्ते कौरवेश्वरे । सज्जा भवत भो भक्ता रणातिध्यप्रदायिनः ॥ ८५
[ नारदागमन ] इसके बीचमें दुर्योधनकी आगमन वार्ता कहनेके लिये नारद ऋषि, जो किं मुनिके समान संयमी थे, चित्रांगदके पास आये । वे चित्रांगदको कहने लगे कि ' हे चित्रांगद भयसे भरे हुए, शत्रुसमूह से व्याप्त इस वनमें तूं क्यों रहता है ? " हे गंधर्व, हे सुतार विद्याधरों, आप वनमें रहनेवाले पाण्डवोंकी क्यों सेवा कर रहे हैं ? ।। ७५- ७७ ॥ चित्रांगद ने कहा - " हे नारद मेरा वचन सुनो, यह श्रेष्ठ धनंजय हमारा गुरु है। इसने शत्रुसमूहको नष्ट कर इन्द्र विद्याधरको राज्यपर स्थापित किया है । यह अर्जुन हमारा स्वामी ह और हम उसके सदा सेवक हैं । नारदऋषि चित्रांगदका उत्तम भाषण सुनकर बोलने लगे - हे चित्रांगद इस समय इस वनमें दुर्जयशत्रु दुर्योधन आगया है । हे चित्रांगद तुम यदि क्षणार्ध में संपूर्ण शत्रुरूप दुर्योधनादिक कौरवो मारोगे तो तुम अर्जुनके शिष्य हो ऐसा मैं समझूंगा। मैं निश्वयस आजन्म ब्रह्मचारी हूं । मैं हमेशा धर्ममें तत्पर रहता हूं । नारीके नामसे भी पराङ्मुख हूं ॥ ७८-८२ ॥ जो श्रेष्ठ आत्मा है, जो महाबुद्धिमान् और पितामह है, ऐसे भीष्माचार्यकी आज्ञाको कलह करनेवाले ये कौरव नहीं मानते हैं। जो द्रोण और विदुर इनके चाचा हैं जो परमोन्नतिवाले हैं उनके वचनोंसे ये कौरव विरक्त हुए हैं । उनके वचन ये नहीं मानते ह । और पांडवोंके साथ बैर धारण करते हैं । अब कौरवेश्वर दुर्योधन युद्ध करनेके लिये आया हुआ है । हे चित्रांगदादि विद्याधरों, रणमें पाहुनगत करनेवाले आप युद्धके लिये सज्ज हो जावो ॥ ८३-८५ ॥ नारदऋषिका भाषण सुनकर कुपित और शत्रुरूप जंगलको जलाने में अग्नि के समान, गर्वसे भरा हुआ चित्रांग युद्ध करने के लिये उद्युक्त हुआ || ८६ ॥ उतने में बंधुओंसे सुंदर और रणके लिये तयारी जिसने की है, ऐसा दुर्यो
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