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________________ समदर्श पर्व ३४७ इन्द्रं निरिणं कृत्वा ययौ तेन धनंजयः । आतोधनादवृन्देन नगरं रथनपुरम् ॥६२ गृहे गृहे स्म गायन्त्यङ्गना मङ्गलनिखनम् । धनंजयजयं वैरिपक्षक्षयसमुद्भवम् ॥६३ पाण्डवानां वरो वंशो गीयते मागधैर्मुदा। अय॑तेर्चनया पार्थः खेटैः क्षपितदुर्णयैः ॥६४ अग्रेकृत्य खगान् क्षिप्रं श्रेणीयुग्मं विलोकितुम् । गत्वा वीक्ष्य स आयातो नगरं रथनपुरम् ।। एवं च पञ्च वर्षाणि विद्याधरमहाग्रहात् । स्थित्वा मित्रैः सुगन्धर्वतारायैर्निर्ययो ततः ॥६६' चित्राङ्गप्रमुखैः शिष्यैर्धनुर्विद्यासुशिक्षकैः । शतसंख्यैः समं चेले पार्थेन पृथुकीर्तिना।। ६७ तत्रागत्य नृपान्भ्रातृन्समुत्तीर्य विमानतः । वीक्ष्य संमिलितो भक्त्या ननाम स यथायथम् ।। वियोगार्ताश्चिरं चित्ते सुखं भेजुस्तदाप्तितः । पाण्डवा मिलिते स्वीये कस्य सौख्यं न जायते।। पुनः पार्थः स पाञ्चालीं प्राप्य प्रणयपूरिताम् । प्रपेदे परमं सातं पुण्यपूर्णः प्रतापवान् ।।७. चित्राङ्गप्रमुखाः शिष्याश्चापविद्याविशारदाः। गरीयांसो वरीयांसः सेवन्ते स्म धनंजयम् ॥ मानयन्तो महामान्या युधिष्ठिरमहीपतेः । जज्ञिरे परमामाज्ञां सुज्ञा विज्ञानगाश्च ते ॥७२ दुर्योधनेन ते ज्ञाता एकदा पाण्डवा नृपाः। सहायवनसंप्राप्ताः सन्न्यायपथचारिणः ॥७३ वाद्योंके नाद सहित रथनूपुरको चला गया ॥ ६०-६२ ॥ उस समय प्रत्येक घरमें स्त्रियां शत्रुपक्षका क्षय करनेसे उत्पन्न हुए अर्जुनके यशका गायन मंगलयुक्त शब्दोंसे गाने लगीं। स्तुतिपाठक पाण्डवोंके उत्तम वंशका गान आनंदसे करने लगे। जिन्होंने अनीतिका विध्वंस किया है ऐसे विद्याधर वस्त्रादिकोंसे अर्जुनकी पूजा करने लगे ॥ ६३-६४ ।। [ अर्जुनका रथनूपुरमें निवास ] विद्याधरोंको आगे करके अर्जुन शीघ्र उत्तरश्रेणी और दक्षिणश्रेणी देखनेके लिये जाकर रथनूपुर नगरको आया। वहां विद्याधरोंके अत्याग्रहसे पांच वर्षतक रहा। तदनंतर गंधर्व, तारक आदि मित्रोंके साथ और धनुर्विद्यामें निपुण हुए चित्रांग आदि सौ शिष्योंके साथ बडी कीर्ति जिसकी है ऐसा अर्जुन वहांसे निकला ॥ ६५-६७ ॥ कालिंजर वनमें, जहां पाण्डव ठहरे हुए थे, वहां अर्जुन विमानसे आकर और उसपरसे उतरकर अपने भाईयोंको देखकर उनसे वह मिला। उसने यथाक्रम भक्तिसे अपने भाईयोंको नमस्कार किया। अर्जुनकी प्राप्तिसे दीर्घकालके वियोगसे पीडित पांडव मनमें सुखी हुए। योग्यही है, कि अपने जनके मिलापसे किसको सुख नहीं होता है ? ॥ ६८-६९ ॥ प्रीतिसे भरी हुई पांचाली-द्रौपदीको प्राप्त कर पुण्यपूर्ण और प्रतापी अर्जुन पुनः अतिशय सुखी हुआ ॥ ७० ॥ धनुर्विद्यामें निपुण, बडे और श्रेष्ठ चित्रांग आदि मुख्य शिष्य अर्जुनकी सेवा करते थे ।। ७१ ॥ युधिष्ठिरराजाकी हितकारी उत्तम आज्ञाको माननेवाले वे अर्जुनके शिष्य महामान्य, सुज्ञ और विशिष्ट ज्ञानी हुए ॥ ७२ ॥ किसी समय उत्तम न्यायमार्गमें तत्पर पाण्डवराजा सहायवनमें आये हैं ऐसा दुर्योधनने जाना, वह क्रोधसे बलपूर्ण अपने सैन्यके साथ सन्नद्ध होकर उनको मारनेके लिये उद्युक्त हुआ । ७३-७४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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