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________________ पाण्डवहुराणम् पुरीं स पिहितद्वारा विधाय विधिवस्थितः। तत्सेवको विशालाक्षसुतोऽहं चन्द्रशेखरः ॥५० दुश्चिन्तं तं परिज्ञाय मया नैमित्तिकोऽन्यदा । नत्वा पृष्टो विनीतेन कदास्य वैरिसंक्षयः॥५१ स बमाण निमित्तज्ञो मनोहरगिरौ शृणु । यस्त्वां जेष्यति पार्थः स तद्रिपंच हनिष्यति ॥ तच्छ्रवाहं ततस्तस्थौ प्रच्छन्नोत्र महागिरौ । स्वामिस्त्वं वृषपाकेन मिलितोऽसि महामते॥ एोहि च त्वया साकं गम्यते तत्र सांप्रतम् । इत्युक्त्वा तौ स्थितौ व्योमयाने प्रोद्गतसद्ध्वजे ॥ ५४ चचाल चञ्चलं व्योमयानं मानसमन्वितम् । ताभ्यामुपरि संस्थाभ्यां रणद्घण्टारवाकुलम् ॥ ततस्तौ संस्थितौ याने विजयार्धमहागिरौ । याताविन्द्रनृपः श्रुत्वा समायासीच्च सन्मुखम् ॥ तावता वैरिणस्तस्य श्रुत्वा तस्यागमं ध्रुवम् । चेलुर्विमानसंरूढा व्याप्तव्योमदिगन्तराः ॥५७ इन्द्रेण व्योमयानस्थः पार्थः प्रत्यर्थिनः प्रति । इयाय रणतूर्येण नावि नाविकवत्सह ।।५८ ततस्ते रणशौण्डीराश्चण्डकोदण्डमण्डिताः । आरेमिरे रणं कर्तुं पार्थेन सुधनुष्मता ॥५९ सामान्यशत्रतो जेतुमशक्याः सव्यसाचिना । ज्ञात्वेति वैरिणो हन्तुमारब्धा दिव्यशस्त्रतः।। नागपाशेन ते बद्धाः केचित्केचिच वह्निना । ज्वालिताचार्धचन्द्रेण छिनास्तेनारयः परे।। शेखर है। इन्द्रराजा हमेशा दुश्चिन्तामें रहता है ऐसा जानकर मैंने नम्रतासे किसी समय नैमित्तिकको नमस्कार करके पूछा, कि इन्द्रराजाके शत्रुओंका नाश कब होगा ? ॥ ४९-५१ ॥ तब वह निमित्तज्ञ कहने लगा कि हे विद्याधर तू सुन--- " जो तुझे मनोहर पर्वतपर जीतेगा वह अर्जुन इंद्रराजके शत्रुओंको नष्ट करेगा।" उस कथनको सुनकरही मैं गुप्तरूपसे इस महापर्वतपर रह रहा हूं। हे प्रभो, हे महाविद्वन् , आप मुझे पुण्योदयसे प्राप्त हुए हो। आओ, आओ आपके साथ अब मुझे वहां जाना है, ऐसा बोलकर जिसके ऊपर उत्तम ध्वज लगाये हैं ऐसे विमानमें वे दोनों बैठ गये ॥ ५२-५४ ॥ प्रमाणयुक्त, रणझण करनेवाली घंटियोंके शब्दसे व्याप्त, जिसमें अर्जुन और विद्याधर बैठे हैं ऐसा वह विमान चलने लगा। विमानमें बैठे हुए वे दोनों विजयार्ध---महापर्वतपर गये। वे निश्चयसे आये हैं ऐसा सुनकर इन्द्रराजा उनके सम्मुख गया। उतनेमें उसके वैरी भी जिन्होंने आकाश और दिशाओंका मध्यभाग व्याप्त किया है, विमानमें आरूढ होकर चलने लगे ॥ ५५-५७ ॥ जैसे नावमें बैठा हुआ पुरुष नाविकके साथ रहता है वैसे इन्द्रके साथ विमानमें बैठा हुआ अर्जुन शत्रुओंके ऊपर युद्धके वाद्योंके साथ आक्रमण करने लगा ॥ ५८-५९ ॥ प्रचण्ड धनुष्यसे शोभनेवाले, युद्धशूर वे वैरी धनुर्धारी-अर्जुनके साथ लडने लगे। सामान्य शस्त्रोंसे इनको जीतना कठिन है ऐसा समझ कर दिव्यशस्त्रसे अर्जुनने शत्रुओंको मारना प्रारंभ किया। कई शत्रु ओंको उसने नागपाशसे बांधा और कई शत्रुओंको उसने अग्निबाणसे जलाया और कइयोंको अर्धचन्द्र बाणसे छेद डाला। इस प्रकार इन्द्रको अर्जुनने शत्रुरहित किया और वह उसके साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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