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________________ ससदशं पर्व ३४५ संतुष्टो मनसा पार्थो बंभणीति स्म तं प्रति । कस्त्वं कस्मात्समायातो युद्धवान्केन हेतुना । आचख्यौ खेचरः क्षिप्रं श्रुत्वा तद्वचनं वरम् । युद्धस्य कारणं कीशकेतो चाकर्णयाधुना ॥४० अस्त्यत्र भारते भव्यो विजया| धराधरः । यः शृङ्गैर्गगनं मातुमुत्थितोऽतिमहोमतः॥४१ तदक्षिणमहाश्रेणौ रथनपुरसत्पुरम् । वरं विशालशालेन तर्जयद्यत्सुरालयम् ॥४२ नमिवंशसमुद्भूतो भूपतिस्तत्र भासुरः। विद्याविधिविशुद्धात्मा खगो विद्युत्प्रभो बभौ ॥४३ सुतस्तस्य स्फुरद्वीयों बभूवेन्द्रसमाह्वयः । विद्युन्माली परः पुत्रः शत्रुसंततिशातनः ॥४४ विद्युत्प्रभो विरक्तस्तु शके राज्यश्रियं परे । न्यस्यादीक्षत वीक्ष्य स्वं यौवराज्यं सुते प्रभुः॥ जग्राह दारान्पौराणां मुषाणान्यधनानि च । पुषाण युवराट्पीडां पुरी स इत्युपाद्रवत् ॥४६ कृत्वैकान्ते कनीयांसं रसापतिरशिक्षयत् । समजायत वैराय तस्मिशिक्षापि दुर्मदे ॥४७ मुक्त्वाथ स पुरी कोपादहिः स्थित्वा च लुण्टति । खरदूषणवंशीयैः सह स्वर्णपुरे स्थितः ॥ संतापितः सपत्नौधैः स सुखं लभते न हि । अहर्निशं निशानाथो राहुणेव विरोधितः॥ कहांसे आये हो, और मुझसे तुमने युद्ध किस हेतुसे किया है ? " उसका सुंदर भाषण सुनकर शीघही विद्याधरने कहा, कि हे अर्जुन युद्धका कारण तुझे मैं कहता हूं अब सुन ॥ ३९-४० ।। इस भरतक्षेत्रमें सुंदर विजया नामक पर्वत है। वह मानो अपने अत्यंत ऊंच शिखरोंसे आकाशको नापने के लिये उठ कर खडा हुआ है ॥ ४१ ॥ उस पर्वतकी दक्षिण महाश्रेणीपर अपने विशाल तटके द्वारा स्वर्गको तिरस्कृत करनेवाला रथनूपुर नामका सुंदर नगर है। उस नगरीमें नमिवंशमें उत्पन्न हुआ तेजस्वी विद्याधर राजा राज्य करता था। उसका नाम विद्युत्प्रभ था। विशके विधानसे उसकी आत्मा विशुद्ध थी। उसे जिसका पराक्रम स्फुरित हुआ है ऐसा इन्द्र नामका पुत्र था। तथा शत्रुके समूहका नाश करनेवाले दुसरे पुत्रका नाम विद्युन्माली था ॥ ४२-४४ ॥ विद्युत्प्रभ राजाने विरक्त होकर इंद्र नामक ज्येष्ठ पुत्रपर राज्यलक्ष्मीकी स्थापना की और छोटे पुत्रपर युवराजपद स्थापित किया। इस प्रकार दोनों पुत्रोंकी विभूति देख राजाने दीक्षा धारण की। तदनंतर अपनी युवराजपदवी देखकर युवराज लोगोंकी स्त्रियोंको ग्रहण करने लगा, उनका धन लूटने लगा। लोगोंकी पीडायें बढने लगीं । इस प्रकार नगरीको वह उपद्रव देने लगा ॥ ४५-४६॥ इंद्र राजाने युवराजको एकान्तमें बुलाकर नगरवासियोंको पीडा देना अनुचित है ऐसा कहा, परंतु दुष्टमदसे उन्मत्त होनेसे वह उपदेश वैरका कारण हुआ। युवराजने रथनूपुरका त्याग किया और वह कोपसे नगरीके बाहर रहकर उसे लूटने लगा ।। ४७-४८ ॥ खरदूषणके वंशमें जन्मे हुए लोगोंके साथ वह युवराज स्वर्णपुरमें जाकर रहने लगा। जैसा चन्द्र हमेशा राहुसे पीडित होता है वैसा यह इन्द्रराजा शत्रुओंसे पीडित होनेसे सुखी नहीं हुआ। वह इंद्र रथनूपुरके दरवाजे बंद कर उचित प्रबंध करके वहां रहा । उसका सेवक विशालाक्ष नामक विसाधर है उसका मैं पुत्र हूं मेरा नाम चन्द्र पां. ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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