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पाण्डवपुराणम् धजनयः किरातश्च तदा तौ सन्मुखं स्थितौ । रणाय रणशौण्डीरौ प्रहरन्तौ परस्परम् ॥२७ बाणैर्वाणैस्तयोवृत्तं युद्धं तूर्णप्रणोदितैः । आकर्ण ज्यां समाकृष्य विमुक्तैः परमोदयैः ॥२८ बाणैर्विरचितो भाति ताभ्यां मुक्तैर्महांस्तयोः । मध्ये जनाश्रयः स्थातुमिव संभिन्नचेतसा ॥ धनंजयेन कुद्धेन ये ये बाणा विसर्जिताः । ते ते निष्फलतां नीताः किरातेन महात्मना ।। कीशकेतुर्विलोक्याशु किरातं दुर्जयं रणे । धनुर्हित्वा दधावासौ विधातुं बाहुविग्रहम् ॥३१ बाहुदण्डैः प्रचण्डौ तौ वल्गन्तौ रणकोविदौ । मल्लाविव विरेजाते लिङ्गितौ स्नेहतो यथा ।। अजय्यं तं परिज्ञाय पार्थो व्यर्थीकृताशयः । चकार चरणद्वन्द्वं करे तस्य महाद्युतिः॥३३ स विभ्राम्य शिरः पार्श्वे यावदास्फालयत्यलम् । महीतले किरात तं परितः प्राणपेशलम् ॥ तावता प्रकटीभूतो विकटोऽपि महाभटः। दिव्यरूपधरो धीमान् बभूव वरभूषणः ॥३५ विनयेन ततः पार्थ ननाम नतमस्तकम् । स उवाच नराधीश प्रसन्नोऽस्मि तवोपरि ॥३६ त्वं याचस्व वरं दिव्यं तवेष्टं पाण्डुनन्दन । श्रुत्वा जजल्प पार्थेशः परमार्थविशारदः॥३७ सारथित्वं भज त्वं भो मम स्यन्दनवाहने । तथेति प्रतिपन्नं हि खेचरेण मुदा तदा ॥३८
दोनोंने अन्योन्यको प्रहार करना शुरू किया। जल्दी जल्दी प्रेरे गये बाणोंसे उन दोनोंका युद्ध हुआ। उन्होंने अपने कानतक डोरी खींचकर परम उन्नतिवाले बाण अन्योन्यपर छोडे। उन दोनोंने छोडे हुए बाणोंसे उन दोनोंके बीचमें मानो लोगोंको रहनेके लिये एक बडा मण्डप रचा गया हो ऐसा मालुम पडता था। जिसका हृदय भिन्न हुआ है ऐसे कुपित धनंजयने जो जो बाण किरातपर छोडे वे सब उस महात्माने निष्फल किये। वानरध्वजवाले अर्जुनने रणमें इस भीलको जीतना कठिन है ऐसा देखकर धनुष्य छोड दिया और उसके साथ बाहुयुद्ध-कुस्ती करनेके लिये उसके समीप वह दौडकर आया। रणचतुर और प्रचण्ड, वल्गना करनेवाले वे दोनों योद्धा बाहुदण्डोंसे लडते समय-कुश्ती खेलने समय स्नेहसे आलिंगन करनेवाले दो मल्लोंके समान दीखने लगे। मल्लयुद्धमें उस भीलको अजय्य समझकर जिसका संकल्प व्यर्थ हुआ है ऐसे महाकान्नियुक्त अजुनने उसके दो पांव हाथमें लिये और घुमाकर उस प्राणोंसे सुंदर भीलको मस्तकके बाजूसे जमीनपर पटकना चाहा इतनेमें वह बिकट महायोद्धा अपने सत्यस्वरूपमें प्रगट हुआ। वह दिव्यरूप धारण करनेवाला, विद्वान् और उत्तम आभूषण पहने हुआ था। तदनंतर विनयसे नम्रमस्तक हुए अर्जुनको उस विद्याधरने वन्दन किया। " हे नराधीश मैं तुझपर प्रसन्न हुआ हूं। हे पाण्डुपुत्र, तू तुझे जो अभीष्ट है वह दिव्य वर मांग । परमार्थनिपुण अर्जन राजा उसका भाषण सुनकर बोला, कि तू मेरे रथ चलानेके कार्यमें सारथि हो। उस विद्याधरने 'तथास्तु' ऐसा कहकर उसका वचन उस समय आनंदसे मान्य किया ।। २७-३८ ॥
[ विद्याधरका वृत्त-निवेदन ] मनसे संतुष्ट हुए अर्जुनने उसे कहा कि, तुम कौन हो ?
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