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सप्तदशं पर्व तत्रारुह्य पुनः प्राह पाथ एव विचक्षणः। कोऽप्यस्ति पर्वते देवो नरो विद्याधरोऽथवा ॥१५ यद्यस्ति मां स वा वक्तु यतो मे वाञ्छितं भवेत् । कार्य सर्वेष्टसिद्धिश्च पुरुषस्पेष्टसाधनी ।। आविरासीत्तदा व्योम्नि वाणी सर्वत्र विस्तृता । सावधानमनाः पार्थ श्रृणु मद्वचनं परम् ॥ वैताढ्योत्र महीध्रोऽस्ति श्रेणीद्वयविराजितः । तत्र याहि यतस्तूर्ण जयश्रीस्तव सेत्स्यति । शतं शिष्या भविष्यन्ति तव सर्वार्थसाधकाः। पश्च वर्षाणि तत्रैव त्वया स्थातव्यमञ्जसा॥ पुनः खबान्धवैर्योगो भविता तव पाण्डव । इत्याकर्ण्य प्रहृष्टात्मा यावत्तिष्ठति तत्र सः॥२० तावद्वनेचरः कश्चिद्धमरच्छविरुनतः । शुष्कौष्ठवदनो वाग्मी दन्तुरः कोलकेशकः ॥२१. प्रचण्डाखण्डकोदण्डधर्ता विशिखपाणिकः । भ्रूभङ्गारुणनेत्राढ्यः प्रादुरासीद्भयंकरः ॥२२ तदावादीनरो देहि मह्यं हहो धनुर्धर । मम योग्यमिदं शस्त्रं भारं वहसि मा वृथा ॥२३ अथवा शोभते चेदं सत्करे महतामिह । विफलं त्वं स्वमात्मानं कदर्थयसि कि नर ।।२४ कुद्धेन तेन श्रुत्वेदं विरुद्धेन निजं धनुः । आस्फालितं स्वहस्तेन खे गर्जन्मेघवत्सदा ॥२५ बाणमारोपयामास गुणे स सुवनेचरः । कंपयन्कंप्रशीलानि वनेचरमनांसि च ॥२६
पुकारा क्या इस पर्वतपर कोई देव, मनुष्य अथवा विद्याधर है ? यदि है तो मुझे जिससे मेरा इच्छिन कार्य होगा और सर्व इष्टसिद्धि होगी ऐसा वचन कहें। उस समय पुरुषकी इष्टसिद्धि करनेवाली और सर्वत्र फैलनेवाली आकाशवाणी प्रगट हुई-हे पार्थ, लक्षपूर्वक मेरा उत्तम वचन सुनो। “ इस भरतक्षेत्रमें दो श्रेणियोंसे शोभनेवाला विजयाई नामक पर्वत है। वहां तू शीघ्र जा जिससे तुझे जयलक्ष्मीकी सिद्धि होगी। वहां सर्व कार्योंके साधक सौ शिष्य तुझे मिल जायेंगे और पांच वर्षतक तुझे वहां ही निश्चयसे रहना पडेगा। पुनः अपने भाईयोंके साथ तेरा मिलाप होगा" ऐसी वाणी सुनकर आनंदितचित्त होकर वह वहां बैठा था इतनेमें भौरोंके समान काला और ऊंचा, जिसका ओष्ठ और मुँह सूखा है, जिसके दांत आगे आये हैं, जिसके शरीरपर सुअरके समान रूक्ष केश हैं, जो बोलनेमें चतुर है, ऐसा वनमें घूमनेवाला कोई भील प्रगट हुआ। उसने प्रचण्ड और अखण्ड धनुष्य धारण किया था। उसके हाथमें बाण थे उसकी भौंहें टेडी थी
और आँखें लाल थीं ॥ १२-२२ ॥ उस समय अर्जुनने उस भीलसे ऐसा कहा " हे धनुर्धर, यह शस्त्र मेरे योग्य है। तू इसका व्यर्थ भार क्यों धारण कर रहा है । तू इसे मुझे दे, अथवा यह शस्त्र महापुरुषके हाथमेंही शोभा पाता है। ऐसे शस्त्रको धारण कर तुम स्वयंको क्यों कष्टमें डालते हो। अर्जुनका यह भाषण सुनकर क्रुद्ध हुए उस विरुद्ध भीलने अपने हाथसे अपना धनुष्य शब्दयुक्त किया तब वह मेघके समान गर्जना करने लगा। भीतिसे कँपना जिनका स्वभाव है ऐसे वनचरोंके मनको कंपित करनेवाले उस भीलने डोरीपर बाण जोड दिया ॥ २३-२६ ॥ धनंजय ( अर्जुन और भील दोनों युद्धके लिये अन्योन्यके सम्मुख खडे हो गये। दोनों रणचतुर थे
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