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पाण्डवपुराणम् युधिष्ठिरः पुनश्चित्ते चिन्तयामास कोविदः । वने निवसता पापारिक कर्तव्यं मयाधुना ॥४ फलमुक्त्या च नीयन्ते घस्रा दुर्विधिसंगताः। विना वित्तेन दीयन्ते किं दानानि मुनीशिने।। अद्याहो जीवितं मे धिनिद्रव्यस्य शवस्य वा । जीवितान्मरणं श्रेष्ठं विना दानेन देहिनाम् ।। चिन्तयन्तमिमं भूपं ज्ञात्वावादीन्महामुनिः । नाशात्र विधातव्यं त्वया स्थितिसुवेदिना॥ त्वं महान्विनयी भव्यो वात्सल्यभरभूषणः । यदावयोरभूद्योगो विद्धि तद्वषवैभवम् ।।८ अत्रानर्थस्तु कालेन भविता तव निश्चितः। न विषादो विधेयोन तद्धि वैदुष्यजं फलम् ॥९
इत्युक्त्वा योगिनां संघस्ततो निर्गत्य सगिरिम् ।
सिंहशार्दूलहस्त्याढ्यं समियाय महोन्नतम् ॥ १० पाण्डवानामधीशोऽत्र चिरं तस्थौ स्थिराशयः । नयन्कालं स धर्मेण न्यायमार्गविशारदः॥ एकदा च करे कृत्वा गाण्डीवं वानरध्वजः । इन्द्रक्रीडा प्रकतुं स समियाय मनोहरः॥१२ ददर्शाथ दरातीतो गच्छन्मार्गे महाभये । मनोहराभिधं रम्यं महीधं जिष्णुनन्दनः ।।१३ आरुरोह धराधीशं धरां द्रष्टुमनाः स तम् । महोपलं द्रुमवातविषमं विषयी कृती ॥१४
अपने मनमें ऐसा विचार किया “पापोदयसे मैं वनमें रहता हूं, इस समय मैं क्या कार्य कर सकता हूं, इस वनमें दुर्दैवसे फलोंपर निर्वाह कर दिवस काटने पड रहे हैं। धनके बिना मुनिश्रेष्ठोंको आहार आदिक दान कैसे दे सकता हूं। आज शवके समान द्रव्यरहित मेरा जीवन धिक्कारका पात्र है। दानके विना प्राणियोंका मरण जीवनसे श्रेष्ठ है अर्थात् जो सत्पात्रोंको दान नहीं देते हैं वे प्राणसहित होनेपर भी मृतके समानही है " ऐसा विचार करनेवाले युधिष्ठिरके अभिप्रायको जानकर महामुनिने कहा, कि "हे राजन् इस विषयमें तू खेद मत कर क्यों कि तू वास्तविक परिस्थिति जाननेवाला है। तू महापुरुष है। तू विनय करनेवाला भव्य है। वात्सल्यरूप अलंकार धारण करनेवाला है, इस लिये खेद मत कर । यहां हम दोनोंका जो मिलाप हुआ है वह धर्मका माहात्म्य है, ऐसा तू मनमें समझ। इस जंगलमें कुछ कालके बाद तेरे पर संकट आनेवाला है और इससे तू मनमें खेद मत कर, क्यों कि खेदरहित प्रवृत्ति करना यह विद्वत्ताका फल है। विद्वान् लोक विचार करके कार्य करते हैं और कार्य बिगडनेपर भी विवेकसे वे समाधानवृत्तिको नहीं छोडते हैं" ऐसा बोलकर वह योगिओंका संघ वहांसे निकलकर सिंह, वाघ, हाथियोंसे भरे हुए अत्युच्च उत्तम पर्वतपर गया ॥ ४-१० ॥ इस कालिंजर वनमें पाण्डवोंका अधिपति युधिष्ठिर दीर्घ कालतक रहा। स्थिर चित्तवाला और न्यायमार्गज्ञ युधिष्ठिर धर्मसे अपना काल बिताता था ॥११॥ किसी समय वानर चिहकी ध्वजा धारण करनेवाला सुंदर अर्जुन हाथमें गांडीव धनुष्य धारण कर इन्द्रक्रीडा करनेके लिये उस वनसे निकला। महाभयंकर ऐसे मार्गमें जाते हुए भयरहित अर्जुनने मनोहर नामक रमणीय पर्वत देखा। पुण्यवान् और विषयोंको भोगनेवाले चतुर अर्जुनने उसपर चढकर
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