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सप्तदशं पर्व
मांसाशापरिवर्धकं च मदिरापानप्रपापेशलम् चौर्याखेटकलञ्चिकान्यवनितासंसक्तिदं त्यज्यताम् ॥ १४९ घृतात्पाण्डवनन्दना नरवरा मुक्त्वा वरं नीवृतम् तिष्ठन्तो वटकाने परिहृताहारादिसाताः स्वयम् । व्याघ्रव्यालभयाकुले निरुपमांः सीदन्ति सन्तः स्म च धिग्द्यूतस्य विचेष्टितं हि महतां दुःखस्य संपादकम् || १५०
इति श्रीषाण्डवपुराणे भारतनाम्नि भट्टारक श्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे पाण्डवद्यूतक्रीडाकरणवनवासगमनवर्णनं नाम षोडशं पर्व ॥ १६ ॥
३४१.
| सप्तदशं पर्व |
वासुपूज्यं नरैः पूज्यं वसुपूज्यसुतं स्तुवे । वासवैः सेवितं शस्तं वसुपूजाप्रदं मुदा ॥ १ अथ तत्र समायासीद्यतिसघो विशुद्धधीः । कृतेर्यापथसंशुद्धिर्निःसंगः शीललक्षितः ॥२ यतिसंघं च ते वीक्ष्य गत्वा नत्वा पुरः स्थिताः । आनन्दोन्नतचेतस्का धर्मभावसमुद्यताः ॥३
त्याग करो ॥ १४९ ॥ इस द्यूतसे श्रेष्ठ पुरुष पाण्डवपुत्र अपना उत्तम देश छोडकर आहारादिसुखोंसे वञ्चित होकर स्वयं वटवृक्षोंके वनमें रहने लगे । वाघ, सर्पादि - हिंस्र प्राणियोंसे भयपूर्ण बनमें उपमारहित ऐसे सज्जन पाण्डव द्यूतसे दुःख भोगते हैं। इस प्रकार इस द्यूतकी यह चेष्टा बडे पुरुषों को भी दुःख देनेवाली है ॥ १५० ॥
ब्रह्म श्रीपालजीकी सहायता से भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीने रचे हुए श्रीपाण्डवपुराण- भारतमें पाण्डवोंकी द्यूतक्रीडा और वनमें निवासके लिये जाने का वर्णन करनेवाला सोलहवा पर्व समाप्त हुआ ॥ १६ ॥
[ सत्रहवा पर्व ]
वसुपूज्य - राजा के
मनुष्योंके द्वारा पूजायोग्य, इंद्रोंसे सेवा किये गये, देवोंकी पूजाको देनेवाले, पुत्र प्रशंसनीय ऐसे श्रीवासुपूज्य तीर्थकरकी मैं स्तुति करता हूं ॥ १ ॥ [ युधिष्ठिरकी स्वनिन्दा ] उस कालिंजर वनमें निर्मल बुद्धिके धारक, ईर्यापथकी शुद्धि जिन्होंने की है, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों के त्यागी, संपूर्ण शीलों से युक्त ऐसे मुनियोंका संघ आया । मुनिसंघको देखकर पाण्डवोंने उनको वंदन किया और उनके आगे वे बैठ उन्नत हुआ था - पूर्ण भर गया था। वे धर्मभावों में तत्पर हुए ॥ २-३ ॥
गये। उनका मन आनंदसे
विद्वान् युधिष्ठिरने पुनः
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