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पाण्डवपुराणम् केचिद्वररथारूढाः केचित्संसक्तशक्तयः । केचिदुत्तुगतुरगतराङ्गतनभस्तलाः॥४६ केचिदूचुर्भटाः किं भो वाजिना वारणेन च । कृपाणैर्नर किं यूयं समुद्घाटितविग्रहाः ॥४७ यादवानां सुतां हत्वा स क यास्यति दुर्जनः । अर्जुनश्वार्जुनीभूय परेऽवादिषुरित्यतः ॥४८ समुद्र इव गम्भीरश्चतुरङ्गसुवीचिभृत् । समुद्रविजयो भूपः. प्रतस्थे बान्धवैः सह ॥४९ बलभद्रो बलैः पूर्णो हयहेपारवोन्नतैः । अयासीच्च रणातिथ्यं समर्थः कर्तुमुद्यतः ॥५० हरिहरिरिवोत्तस्थे शाङ्ग धनुषमावहन् । मन्दं मन्दं बलोपेतः कुर्वन्पश्चाननारवम् ॥५१ अन्येऽपि भूमिपा भूरिभूतयो भुवनोत्तमाः । बभ्रमुर्भूतलं भीतिमुक्ता भास्वन्त उद्भटाः ॥५२ इतस्ततो हरिर्गत्वा व्यावृत्यागालैः समम् । स्वां पुरीं तत्र चाहूय बलादीन्भूपतीजगौ॥ विस्तरेण किमत्राहो कार्य पार्थाय दीयताम् । कन्या हरणदोषेण दुष्टा सल्लक्षणान्विता ॥५४ पुनरस्मै प्रदातुं हि भागिनेयाय भासुरा । योग्येयमिति संचय॑ देया तस्मै स्वहस्ततः ।।५५ वृथा कलिन कर्तव्योऽनेनेति शाम्बरं वचः । आकर्ण्य सजनः सर्वस्तथेति प्रतिपन्नवान् ॥५६ ततः सन्मन्त्रिणो मार्गसन्मार्गणसमुद्यताः । तदानयनसंसिद्धथै प्रेषिता हरिणा तदा ॥५७
कईयोंके हाथमें भाले थे, कईयोंके हाथमें तेजस्वी तरवारें थीं। कईक उत्तम-रथपर आरूढ होकर हाथमें शक्तिनामक शस्त्र लेकर दौडने लगे। कितनेक वीर पुरुष ऊंचे घोडेरूपी तरङ्गोंसे आकाशको व्याप्त करते हुए चलने लगे। कई वीरपुरुष अपना शरीर खुला करकेही कहने लगे, कि हे वीरो, हाथीसे और घोडेसे क्या प्रयोजन है ? अपनेको सिर्फ खड्गोंसे प्रयोजन है। यादवोंकी कन्या लेकर वह दुर्जन अर्जुन शुभ्र होकर कहा जायगा, इस तरह कोई वीर पुरुष कहने लगे ॥ ४५-४८॥ चतुरंग सैन्यरूपी तरंगोंको धारण करनेवाला मानो समुद्र ऐसे समुद्रविजय राजा अपने बांधवोंके साथ प्रयाण करने लगे। घोडोंके हेषारवोंसे उन्नत सैन्यके साथ समर्थ बलभद्र रणमें अर्जुनकी पाहुनगत करनेके लिये उद्यत होकर प्रयाण करने लगे। शार्ङ्गधनुष्य धारण करनेवाला हरि-श्रीकृष्ण सिंहके समान सिंहध्वनि करते हुए अपने सैन्यके साथ मन्द मन्द प्रयाण करने लगे ॥ ४९-५१॥ विपुल ऐश्वर्यके धारक, जगच्छ्रेष्ठ, भयरहित, तेजखी उद्भट ऐसे अन्य राजा भी भूतलमें प्रयाण करने लगे ॥ ५२ ॥ श्रीकृष्ण इधर उधर थोडासा प्रयाण कर पुनः सैन्यके साथ अपने नगरको लौटकर आये और वहां बलराम आदि भूपोंको बुलाकर वे इस प्रकार कहने लगे। - “ यहां विस्तारसे कुछ कार्य नहीं है, उत्तम लक्षणवाली अपनी सुभद्रा कन्या हरणदोषसे दूषित हुई है। पुनः अर्जुन तो अपना भानजा है। उसको यह सुंदर कन्या देना योग्य है, इस लिये आदर करके उसे वह कन्या अपने हाथसे अर्पण करना चाहिये। इसके साथ व्यर्थ कलह करना योग्य नहीं है। ऐसा श्रीकृष्णका वचन सुनकर बलभद्रादिक सज्जनोंने 'तथास्तु ' कहकर श्रीकृष्णका वचन मान्य किया ॥ ५३-५६ ॥ तदनंतर उपाय ढूंढनेके लिये उद्युक्त हुए मंत्री अर्जुनको लानेके लिये
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