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पाण्डवपुराणम् इति वृत्तान्तसर्वस्वं निशम्य कौरवाग्रणीः । इतिकर्तव्यतामूढो विलक्षोऽभूदिह क्षणम् ॥१९४ पाण्डवानां समभ्यर्ण द्रोणस्तावदगादृशम् । ते तं वीक्ष्य समालिङ्ग्य नतास्तत्पादपङ्कजम् ।। वृत्तान्तं पूर्वजं सर्व ते तं वाचीकथन्मुदा । द्रोणो निवारयामास युद्धं बन्धुसमाश्रितः ॥१९६ अबीभणत्पुनर्दोणो यूयं शृणुत मद्वचः । कौरवाणामयं दोषो न ग्राह्यो हितवेदिभिः ॥१९७ रोषो विशेषतः पुत्रा न कर्तव्यो हितेच्छुभिः । भवतां पुण्यमाहात्म्यं भुवने कोऽत्र वर्णयेत् ॥ हुताशनज्वलद्गहानिर्गतास्तन्महाद्भुतम् । देशे देशे गता यूयं कन्याद्यैः पूजिताश्चिरम् ।।१९९ एवं वार्ता प्रकुर्वाणा यावत्सन्ति महीभुजः । तावद्गाङ्गेयसत्कर्णकौरवाश्च समाययुः ॥२०० अन्योन्यं मिलिताः सर्वे नम्राश्च ते यथायथम् । अगर्वाः कौरवास्तस्थुरधोवत्रा मदच्युताः॥ गाङ्गेयद्रोणकर्णाद्यैः पाण्डवाः कौरवाः क्षमाम् । अन्योन्यं कारितास्तूर्ण सतां योगः शुभाप्तये॥ दुर्योधनो धराधीशः पुनराह नरेश्वराः । ज्वलनो न मया दत्तस्तत्र साक्षी जिनेश्वरः ॥२०३ पाण्डवानां गृहे येन दत्तो हि हुतभुक् खरः । स एव नरकं घोरं यातु जन्तुप्रपीडकः ॥२०४ समीचीनमिदं जातं युष्माकं यः समागमः । अस्माकं पुण्ययुक्तानामपवादनिवारकः ॥२०५ यजन्मान्तरजं कम तनिषेद्धं हि न क्षमः । कश्चियेन सुकीर्तिश्चापकीर्तिर्जायते नृणाम् ।।२०६ इति दौष्ट्यं समाच्छाद्य छाना मुखमिष्टताम् । अभजत्कौरवो दुष्टो दौष्ट्यं केन हि हीयते ॥
हो अतः तुम रोष मत करो। इस जगतमें तुम्हारा पुण्यका माहात्म्य कौन कह सकता है ? तुम अग्निसे जलते हुए घरसे निकल गये, यह बडा आश्चर्य है ? फिर अनेक देशमें तुमने प्रवास किया
और वहां कन्या, वस्त्र धनादिके द्वारा तुम्हारा दीर्घकालतक आदर हुआ॥ १९५-१९९ । इस प्रकार राजा भाषण कर रहे थे उतनेमें भीष्माचार्य, सज्जन कर्ण और कौरव वहां आगये। वे यथायोग्य परस्परको मिल गये, और नम्र हुए ॥२००॥ कौरवोंकी मदनोन्मत्तता नष्ट होनेसे वे गवरहित हुए वे नीचे मुंह करके बैठ गये। भीष्माचार्य, द्रोणाचार्य और कर्ण आदिक राजाओंने पाण्डव और कौरवोंमें शीघ्र परस्पर क्षमा करवाई। योग्यही है, कि सज्जनोंका संग अच्छेके लियेही होता है। २०१-२०२॥
[दुर्योधनका शपथपूर्वक कथन ] पृथ्वीपति दुर्योधनने “ हे नृपगण मैंने पाण्डवोंका लक्षागृह नहीं जलाया और इस विषयमें जिनेश्वर साक्षी है। जिसने पाण्डवोंके घरको तीव्र अग्निसे जलाया होगा वह प्राणियोंको पीडा देनेवाला दुष्ट पुरुष धोर नरकमें पडेगा। आपका यहां जो आगमन हुआ है वह अतिशय उत्तम हुआ है, ऐसा मैं समझता हूं। इससे पुण्ययुक्त हम लोगोंका अपवाद नष्ट हुआ। जिससे पुरुषोंकी सुकीर्ति और अपकीर्ति होती है ऐसे पूर्वजन्मके कर्मका निवारण करनेमें कौन समर्थ है ?” इस प्रकार कपटसे दुष्ट दुर्योधनने अपनी दुष्टता आच्छादित की, और मुखसे मिष्ट भाषण किया। योग्य ही है, कि कौन दुष्ट दुष्टता छोडेगा ? इस प्रकार सर्व
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