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पञ्चदर्श पर्व
द्रोणं स्वगुरुमानम्य भक्त्या नम्रमहाशिराः । कुन्तीसुतोऽर्जुनचाहं भवच्छिष्यो गुणाम्बुधः॥ चर्करीमि सुविज्ञप्तिं श्रूयतां सावधानतः । निष्कारणं मया क्षिप्ता योद्धारः सकला रणे ॥ निष्कारणं वयं दग्धुमारब्धाः कौरवैः खलैः । कथं कथमपि स्वामिस्तस्माद्नेहाद्विनिर्गताः॥ देशान्भ्रान्त्वा पुनः प्राप्ता माकन्दी सातकन्दलीम् । अत्र पुण्यप्रभावेन वयं प्राप्तास्त्वदधिकौ।। अपसृत्य क्षणं तिष्ठाधुनान्तेवासिनस्तव । भुजयोबलमीक्षख सार्थकोऽहं भवामि यत् ॥१८९ दुर्योधनादिभूपानां पाण्डवज्वालनोद्भवम् । दर्शयामि फलं द्रोणस्तमवाचयदित्यलम् ।।१९० ततोऽश्रुजलसंपूर्णनेत्रो द्रोणो बमाण च । कर्णदुर्योधनादीनामग्रे पत्रोद्भवं खलु ॥१९१ कर्णोऽवोचद्विना पार्थ सामर्थ्य कस्य संभवेत् । ईदृशं यो रणे च्छेत्तुं क्षमः शत्रून् शरैः परैः। एको भीमो रणं सर्व संहतुं च सदा क्षमः । युधिष्ठिरादयश्चान्ये समर्थाः सर्ववस्तुषु ॥१९३
आचार्य द्रोण अतिशय आनंदित हुए ॥ १८१-१८४ ॥ भक्तिसे जिसका विशाल मस्तक नम्र हुआ है ऐसा अर्जुन अपने गुरु द्रोणाचार्यको नमस्कार करके “ मैं कुन्तीका पुत्र अर्जुन हूं, गुणसमुद्र ऐसे आपका मैं शिष्य हूं। मैं आपके पास विज्ञप्ति करता हूं। आप सावधानीसे सुने। रणमें मैंने सर्व योद्धागण विनाकारण नष्ट किये हैं। हम लोगोंको दुष्ट कौरवोंने निष्कारण जलानेका उद्योग किया है। हम जैसे तैसे उस घरसे बाहर निकले और अनेक देशोंमें भ्रमण कर सुखके अंकुरवाली इस माकन्दीनगरीमें पुनः आये हैं ॥१८५-१८८॥ पुण्यप्रभावसे हम यहां आपके चरणोंके समीप आये हैं । हे गुरो। आप किंचित् पीछे हटकर रहें, अब आपके विद्यार्थीका बाहुबल देखें, जिससे मैं कृतकृत्य हो जाऊं । दुर्योधनादिक राजाओंने पाण्डवोंको अग्निमें जलानेका जो कार्य किया है उसका विपुल फल मैं उनको दिखाऊंगा" द्रोणाचार्यने पत्र पढा उनके नेत्र अश्रुजलसे भर गये । कर्ण-दुर्योधनादिकोंके आगे पत्रका अभिप्राय द्रोणाचार्यने कहा ॥ १८९-१९१ ॥ कर्णने कहा कि अर्जुनके विना क्या किसीका इसतरहका सामर्थ्य हो सकता है ? जो रणमें उत्तम शरोंसे शत्रुओंको छेदने में समर्थ है ऐसे अर्जुनके विना अन्य कोई नहीं है। अकेला भीम संपूर्ण रणका संहार करनेके लिये हमेशा समर्थ है। युधिष्ठिरादिक सब पाण्डव सर्व वस्तुओंमें समर्थ है। इस प्रकारका वृत्तान्तका सार सुनकर कौरवोंका अगुआ दुर्योधन कर्तव्यमूढ हो गया, क्षणपर्यन्त खिन्न हुआ ॥ १९२-१९४ ॥
[अन्योन्य क्षमाप्रदान ] उस समय द्रोणाचार्य पांडवोंके समीप चले गये उनको देखकर वे आचार्यको आलिंगन देकर उनके चरणकमलोंपर उन्होंने अतिशय नम्र होकर नमस्कार किया। उन्होंने पूर्वका संपूर्ण वृत्तान्त उनको आनंदसे कह दिया। उस समय पांडवोंके आश्रयसे आचार्यने युद्धको बंद कर दिया और वे इस प्रकार कहने लगे। “हे पाण्डवो, तुम मेरा वचन सुनो। तुम हितकी बातें जानते हो; अतः कौरवोंके दोष तुम मत ग्रहण करो। विशेषतः हे पुत्रो, तुम हितेच्छु
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