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पाण्डवपुराणम् अर्जुनोऽपि तथा तत्र दग्धः कथमिहागतः । धनंजयाभिधानं त्वं न मुञ्चसि तथाप्यहो॥१७५ महीयो मोहमाहात्म्यं भवतां भुवि वीक्षितम् । यतः स्मरसि निर्द्वन्द्वं मृतार्जुनयुधिष्ठिरौ । द्रोणः श्रुत्वा करे कृत्वा धनुषं शरसंयुतम् । धनंजयमुवाचेदं सजो भव त्वमाहवे ॥१७७ द्रोणं प्राप्तं समावीक्ष्य पार्थो व्यर्थीकृताहितः । वीरोऽथ तुमुले चित्तेऽचिन्तयच्चेति विग्रहे ।। एष श्रीमान्समभ्यर्यो गुरुगुणगणाग्रणीः । यस्य प्रसादतो लब्धा धनुर्विद्या मयामला ॥१७९ यस्य प्रसादतो लब्धः संयुगे सुजयो महान् । तेन साधं कथं युद्धे युद्धयते महता मया ॥ गुरूंश्च गणनातीतगुणान्सद्धितकारिणः । ये विस्मरन्ति ते पापाः क्व यास्यन्ति न वेम्यहम् । चिन्तयित्वेति चित्ते स न लक्ष्यः सप्तपादकम् । उत्सृज्य नमनं चक्रे द्रोणस्य श्रीधनंजयः॥ पुनः स प्रेषयामास मार्गणं गुणतो गुणी । सलेखं यत्तदङ्के सोपतत्पार्थेन प्रेषितः ॥१८३ सलेखं विशिखं वीक्ष्य लात्वा द्रोणोऽप्यवाचयत् । लेखं लेखार्थसंजातहर्षोत्कर्षितमानसः ॥
हिलाकर बोलने लगा, कि “ हे द्रोणाचार्य, आप भी भय दिखानेवाला भाषण क्यों कर रहे हैं ? मैंने पाण्डवोंको लाक्षागृहमें जला दिया है। वे फिर कहांसे आते हैं। अर्जुन भी वहीं जल गया है। वह अब यहां कैसे आगया ? तथापि हे गुरो, आप 'धनञ्जय 'का नाम नहीं छोडते हैं। इस भूतलमें आपकी आत्मामें महान् मोहका माहात्म्य हम देख रहे हैं, क्यों कि मरे हुए अर्जुन और युधिष्ठिरका आप अखंड चिन्तन कर रहे हैं ॥ १७३-१७६॥
-- [ द्रोणाचार्य पाण्डवोंका वृत्त कहते हैं ] दुर्योधनका भाषण सुनकर आचार्यने बाणसहित धनुष्य हाथमें लिया और धनंजयको कहा, कि 'तू युद्धमें लडनेके लिये सज्ज हो' द्रोणाचार्य तुमुलयुद्धमें लडनेके लिये आये हैं यह देखकर जिसने सर्व शत्रु व्यर्थ किये हैं-- नष्ट किये हैं ऐसे वीर अर्जुनने मनमें विचार किया। “ये श्रीमान् , गुणों में अग्रणी, पूजनीय मेरे गुरु हैं, जिनके प्रसादसे मैने निर्मल धनुर्वेद प्राप्त किया है। जिनके प्रसादसे मुझे युद्ध में महान जय प्राप्त हुआ है। ऐसे महात्मा गुरुके साथ मैं युद्धभूमिमें कैसे लहूं ॥ १७७-१८० ॥ जिनके गुण गणनाको उलंघ रह हैं अर्थात् जिनके गुण असंख्यात हैं। जो सज्जनोंका हित करते हैं ऐसे गुरुओंको जो भूलते हैं वे पापी समझना चाहिये। वे कहां जायेंगे मैं नहीं समझता हूं। ऐसा मनमें विचार करके जो किसीके द्वारा नहीं जाना गया ऐसा अर्जुन सात पैड जमीन छोडकर अर्थात् उतने अन्तरपर ठहर कर द्रोणाचार्यको नत हुआ। पुनः गुणी अर्जुनने धनुष्यकी दोरीसे लेखसहित बाणको छोड दिया । अर्जुनने छोड़ा हुआ वह बाण गुरुके अंकपर जाकर पडा । लेखसहित बाण देखकर द्रोणने भी लेकर पढ़ा। लेखके अर्थसे उत्पन्न हुए हर्षसे आचार्यका मन उत्कर्षयुक्त हुआ अर्थात्
अमृता लमहर्निशम् ।
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