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पद पर्व
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sai समास का पार्थः समर्थवाक् । छत्रं संछन्नसप्ताचं कवच वचनं यथा ॥ १६२ द्रुपदो विपदां दातुमुत्तस्थे सर्वविद्विषाम् । छादयन्कौरवीं सेनां विशिखैः सुखहारिभिः ॥ धृष्टद्युम्नादयो वीरा हन्तुकामाः स्ववैरिणः । उत्तस्थिरे स्थिरस्थैर्याः कुर्वन्तो रणखेलनम् ।। दुर्योधनं पुरस्कृत्य भीमसेनो रथस्थितः । युयुधे वैरिणो वेगात्संछिदन्कवचं वरम् ॥ १६५ पाण्डवीयैः शरैर्विद्धो न को नाभून्महाहवे । मर्त्या मतङ्गजो मत्तो घोटको वा समुत्कटः ॥ भज्यमानं बलं वीक्ष्य निजं गाङ्गेयभूपतिः । जहार रणशौण्डीर्य गुण्डानां रणवेदिनाम् ॥ पितामहं समालोक्य रणस्थं रणकोविदः । आगच्छन्तं महाबाणै रुणद्धि स्म धनंजयः ।। १६८ पार्थः पञ्चास्यवल्लग्नो गाङ्गेयं च महागजम्। कुर्वाणो व्यर्थतां तस्य बाणानां बाणकोविदः ॥ तावद् द्रोणोऽगदीद्वाक्यं दुर्योधनमहीपतिम् । रेणुभिः पश्य खं छन्नं तुरंगमखुरोत्थितैः ॥ इमं पश्य नरं कंचिद्रणकेलिक्रियाकरम् । अर्जुनं विद्धि नेदृक्षान्यत्र चापविदग्धता ॥ १७१ मृषा विद्धि विदग्धास्ते पाण्डवा जतुवेश्मनि । दग्धा इति यतः प्राप्ता जीवन्तः संयुगेऽप्यमी ॥ श्रुत्वा दुर्योधनो भूपो विकम्प्याकम्प्रमानसः । मूर्धानं समुधाचेति हसित्वा विस्मिताशयः ।। द्रोण विद्रावणं वाक्यं किमुक्तं भवताप्यहो । जतुगेहे मया दग्धा कुतस्ते पुनरागताः ॥ १७४
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सूर्यको आच्छादित करनेवाला छत्र भी तोड डाला। और वचन के समान कर्णका कवच भी छिन्न किया ॥ १६२ ॥ सुखको नष्ट करनेवाले बाणोंसे कौरवोंकी सेनाको आच्छादित करता हुआ द्रुपद राजा सम्पूर्ण शत्रुओं को विपत्ति देनेके लिये उद्युक्त हुआ || १६३ ॥ रणक्रीडा करनेवाले, जिनका स्थैर्यधैर्य स्थिर है ऐसे धृष्टद्युम्नादि वीर अपने शत्रुओंको मारनेके लिये उद्युक्त हुए ॥ १६४ ॥ शत्रु उत्कृष्ट कवचको वेगसे तोडनेवाला, रथमें बैठा हुआ भीम दुर्योधनके साथ लडने लगा ॥ १६५ ॥ पांडवों के बाणोंसे कौनसा मनुष्य इस महायुद्ध में विद्ध नहीं हुआ ! मनुष्य, उन्मत्त हाथी और उच्छृंखल घोडे भी इस महायुद्ध में विद्ध हुए ॥ ९६६ ॥ अपना सैन्य भग्न हो रहा है, ऐसा देखकर युद्धके ज्ञाता ऐसे भीष्मराजाने शत्रुसुभटोंका रणपराक्रम नष्ट किया ॥ १६७ ॥ रणस्थ पितामहको आते हुए देखकर रणके ज्ञाता अर्जुनने महाबाणोंके द्वारा उनको रोक लिया। भीष्माचार्यके बाणोंकी व्यर्थता करनेवाला युद्धचतुर अर्जुन सिंहके समान भीष्माचार्यरूपी हाथके ऊपर आक्रमण करने लगा ॥ १६८-१६९ ॥ उस समय द्रोणाचार्य दुर्योधन राजाको ऐसा वाक्य बोले । “हे दुर्योधन देखो घोडोंके चरणोंसे उठी हुई धूलीसे आकाश व्याप्त हुआ है। रणक्रीडाकी क्रिया करनेवाले इस अज्ञात पुरुषको देखो। इसे तो तुम अर्जुन ही समझो, क्या क अन्यत्र अर्जुनके समान धनुर्विद्याका चातुर्य नहीं दीखता है। लाक्षागृह में चतुर पाण्डव जल गये यह वृत्तान्त असत्य समझो, क्योंकि इस युद्ध में जीवन्त दीख रहे हैं । १७० - १७२ ॥ द्रोणाचार्यका भाषण सुनकर जिसका मन कम्पित हुआ है, और जिसको आश्चर्य उत्पन्न हुआ है, ऐसा दुर्योधन हँसकर और अपना मस्तक
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