SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० पाण्डव पुराणम् बाणपूरैः प्रपूर्याशु पुष्कलं पुष्कलोदयः । कर्णो धनंजयेनामा युयुधे योद्धसंगतः ।। १५१ कर्णमुक्तान्शरान्पार्थः क्षणोति स्म क्षणान्तरे । स दक्षो लक्ष्यसंवेधे मातरिश्वा यथा घनान् ।। धानुष्कं वीक्ष्य दुर्लक्ष्यं कर्णोऽभूत्तस्य विस्मितः । ईदृक्षं भूतले दृष्टं धानुष्कं क्वापि नो मया ॥ कर्णोऽभाणीद्विजेश त्वं धनुर्विद्याविशारदः । चारु चारगुणं चर्च्य धानुष्कं दर्शितं त्वया ॥ पुनर्विहस्य चापेशोऽगदीद्गद्गदनिखनः । दधानो धन्वसंधानं पिधाय तं शरोत्करैः ।। १५५ भो द्विजेश त्वया कुत्र धनुर्विद्या महोन्नता । लब्धा लब्धिसमा रम्या चिच्चमत्कारकारिणी।। नाकात्पाकात्स्वपुण्यस्य पतितः किं द्विजोत्तम । अस्माभिर्न श्रुतः कोऽपि धनुर्वेदी त्वया समः त्वं किं शक्र उतार्को वा वीतहोत्रो भवान्किमु । अर्जुनः किं रणौद्धत्यं दधानो वा मृतोत्थितः वीरोऽवादीद्धसन्राजन्धरादेवोऽहमत्र च । पार्थस्य सारथीभूय स्थितो धानुष्कतां गतः।। १५९ कर्णो वभाण भो विप्र पूर्व मुञ्च शरोत्करान् । लभस्वाद्य ससामर्थ्यान्मामकीनान् शरान्वरान् इत्युक्त्वा तौ रणे लग्नौ कर्णाकृष्टशरासनौ । हृदयं दारयन्तौ च यथा सिंहकिशोरकौ ॥६१ आच्छादित किया । और अनेक योधाओंको लेकर वह धनंजय के साथ लड़ने लगा ।। १५० - १५१ ॥ वायु जैसे मेघोंको क्षणान्तरमें नष्ट करता है, वैसे लक्ष्यको विद्ध करनेमें चतुर अर्जुन कर्ण से छोडे गये बाणोंको क्षणान्तरमें नष्ट करने लगा । कर्ण उसकी दुर्लक्ष्य धनुर्विद्याको देख कर दंग हुआ अर्थात् धनंजयका बाण जोडना, और छोडना इतनी शीघ्रता से होता था, कि कर्ण भी उसका शरसन्धान और शरमोचन नहीं जान सका । इस प्रकारका धनुर्विद्याका चातुर्य इस भूतलपर मैंने कहां भी नहीं देखा है ॥ १५२ - १५३ ॥ “ हे ब्राह्मणश्रेष्ठ आप धनुर्विद्या में अतिशय चतुर हैं । आपने जिसमें सुन्दर भ्रमणगुण है ऐसा श्रेष्ठ धनुर्विद्याचातुर्य व्यक्त किया है" । ऐसा कर्णने भाषण किया, और पुनः हँसकर बाणसमूहसे अर्जुनको अच्छादित करते हुए, धनुष्यका संधान धारण करनेवाले, चम्पापुरके अधिपति कर्ण गद्गदध्वनि से इस प्रकार बोले । " ब्राह्मणश्रेष्ट, आपने ऋद्धिके तुल्य रमणीय, आत्माको आश्चर्यचकित करनेवाली, महान उन्नतिशालिनी धनुर्विद्या कहां प्राप्त की है ? हे ब्राह्मणोत्तम, क्या अपने पुण्यके उदयसे आप स्वर्ग से यहां आये हैं । हमने आपके समान धनुर्वेदी कहीं भी नहीं सुना है। क्या आप इन्द्र हैं, या सूर्य हैं अथवा अग्नि हैं ? अथवा रणका औद्धत्य धारण करनेवाला मरकर पुन: उठा हुआ अर्जुन है " ॥ १५४ - १५८ ॥ वीर अर्जुन हँसकर बोला, कि हे राजन् मैं ब्राह्मण हूं और अर्जुनका सारथी होकर रहा था; जिससे मैं धनुर्विद्या में निपुण हुआ हूं ॥ १५९ ॥ कर्ण कहने लगा, कि हे ब्राह्मण प्रथम तू बाणसमूह मुझपर छोड, अनंतर मेरे सामर्थ्ययुक्त उत्तम बाण आज सहन कर "। ऐसा बोलकर कानतक जिन्होंने धनुष्य खींचा है ऐसे के कर्ण और अर्जुन सिंहके बच्चों के समान हृदयको विदीर्ण करते हुए रणमें आपसमें युद्ध करने लगे ॥ १६० - १६१ ॥ जिसकी वाणी - सामर्थ्यको धारण करती है ऐसे अर्जुनने कर्णका ध्वज नष्ट कर दिया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy