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पदशं पर्व
३२५ इति सर्वनरेन्द्राणां चित्तेषु तोषमुल्बणम् । अकुर्वन्कौरवास्तूर्ण सर्वतोषप्रदायिनः ॥२०८ . कुम्भकारगृहं प्राप्ताः कुन्ती नेमुनराधिपाः । भक्तिनम्रा विशेषेण कुलवैपुल्यपालिनीम् ॥२०९ धार्तराष्ट्राः पुनः कुन्ती जननीं नतमस्तकाः । नत्वा संतोषमुत्पाद्य पुरस्तस्थुः स्थिराशयाः॥ चलनेत्रा तदावोचत्कुन्ती दुर्योधनं प्रति । धृतराष्ट्रमहावंशे त्वया दत्ता मषिः कथम् ।।२११ त्वया त्ववसितं किं भो दुर्योधनमहीपते । स्ववंशज्वालनं वंशक्षयकारणमुत्कटम् ॥२१२ ये निधूय स्वय वंशं वाञ्छन्ति परमं सुखम् । त एव निधनं यान्ति वलितो वेणवो यथा ॥ राज्यार्थश्वार्थिभिः सार्योऽभ्यर्थितः कृच्छ्दो भवेत् । अन्यथानर्थसंपातो दुःखाय परिकल्पते ॥ तृणाग्रबिन्दुवद्राज्यं नश्वरं किं तदर्थिभिः । वंश्यान्हत्वा समिष्येत तत्तेषां जीवितं हि धिक् ॥ धार्तराष्ट्रा इदं श्रुत्वाधोवत्राः कृष्णतां गताः । शशंसुस्तद्गुणांस्तूर्णमपकीर्ति समागताः ॥२१६ द्रुपदोऽपि ततः शीघ्रं विवाहार्थ समुद्यतः । सुन्दरे मन्दिरे भूपान्पाण्डवान्समवासयत् ॥२१७ ततस्तूर्यनिनादेन जयकोलाहलैः समम् । विवाहमण्डपं प्राप पार्थः सद्रथसंस्थितः ॥२१८
लोगोंको आनंदित करनेवाले कौरवोंने सर्व राजाओंके मनमें शीघ्र उत्कट संतोष उत्पन्न किया ॥२०३-२०८ ॥ राजाओंने कुंभकारके घर जाकर विशेषतया भक्तिसे नम्र होकर कुलकी मर्यादाका पालन करनेवाली कुन्तीको नमस्कार किया। जिनका मस्तक नम्र हुआ है ऐसे कौरवोंने कुन्तीमाताको नमस्कार कर तथा उसके मनमें सन्तोष उत्पन्न करके स्थिराभिप्रायसे वे उसके आगे खडे हो गये ॥ २०९-२१०॥ जिसके नेत्र चंचल हो गये हैं, ऐसी कुन्तीने दुर्योधनको इस प्रकार कहा " हे दुर्योधन तूने धृतराष्ट्रके महावंशमें स्याही क्यों पोत दी है ? हे दुर्योधनराजा, अपने वंशको जलाना अपने वंशका क्षय करनेका उत्कट कारण है, तूने ऐसा कार्य करनेका क्यों निश्चय किया था ? अपने वंशको नष्ट कर जो उत्तम सुख चाहते हैं वे अग्निसे जैसे वांस नष्ट होते हैं, वैसे नष्ट होते हैं। राज्यार्थकी चाह सदिच्छासे करनी चाहिये । तब उससे अच्छा फल मिलता है और दुरिच्छासे राज्य चाहोगे तो वह राज्य कष्टदायक होगा और उससे अनर्थोंका आगमन होकर वह दुःखका कारण होगा। राज्य तिनकेके अग्रपर ठहरे हुए जलबिंदुके समान नश्वर है। उसको चाहनेवालोंको क्या अपने वंशजोंका नाश करके उसकी इच्छा करना योग्य होगा? जो वंशके नाशसे राज्य चाहते हैं उनको धिक्कार हो। धार्तराष्ट्र अर्थात् कौरव कुन्तीके ये कठोर वचन सुनकर नीचे मुँह कर बैठे । उनका मुँह उस समय काला पड गया। अपकीर्तिको प्राप्त हुए उन्होंने कुन्तीके गुणोंकी प्रशंसा की ॥२११-२१६ ॥ तदनंतर द्रौपदीका विवाह करनेके लिये शीघ्र उद्यत हुए द्रुपद राजाने सुन्दर मन्दिरमें पाण्डवोंको रहनेके लिये स्थान दिया। तदनंतर वाद्योंकी ध्वनिके साथ और जयजयकारके साथ उत्तम रथमें बैठा हुआ अर्जुन विवाहमंडपमें आगया। मण्डपमें वेदीके ऊपर सुमुहूर्त और शुभलग्नके समय विद्याधरकन्याके साथ द्रौपदीका पाणिग्रहण अर्जुनने किया।
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