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________________ ३१५ पाण्डवपुराणम् ज्वलदमिमहाज्वालाजालसजटिलो धनुः । सुरनागफणास्फीतफूत्कारमुखराननः ।। ८७ ज्वालयन्धर्तुमायातान्भात्यधीशान्धनुर्धरान् । तत्र तज्ज्वालया ध्वस्ताः पिधायागुः स्वलोचने ॥ अन्ये तस्थुः स्थिता दूरात् संवीक्ष्य विषमोरगान् । भयतः कम्पमानाहाः संमीलितविलोचनाः॥ अन्ये ज्वालाहताः पेतुर्धरायां धरणीधराः । मुमच्छरपरे स्वच्छज्वालातापप्रपीडिताः ॥९० अनयालं परे प्रोचुर्यास्यामो मन्दिरं मुदा । दास्यामो दुर्धरं दानं दीनानाथदरिद्रिषु ।। ९१ जगुः केचित्स्वयोषाभिः क्रीडिष्यामः स्वमन्दिरे । रूपसंपूर्णया चालमनया प्राणयातनात् । अवन्ति स्म परे भृपा अलं कामसुखेच्छया । नेष्यामः समयं कंचिद्ब्रह्मचर्येण चारुणा ॥९३ रूपेमेयं नरान् हन्ति कांश्चिद्रागविषार्चिषा । मारवेगेन कांश्चिञ्च हो कन्या महाविषा ।।९४ तदा दुर्योधनोवोचद्दधानो मानसे मदम् । मत्तः कोऽन्यः समर्थोऽस्ति राधावेधविधायकः ।। राधानासामुमुक्तायाः करिष्यामि सुवेधनम् । इत्युक्त्वा स समुत्तस्थे रक्तनेत्रो वराननः ॥९६ ष्यको ग्रहण कर और बाणसे जोडकर क्या करेगा ? ॥ ८५-८६ ॥ प्रदीप्त अमिकी महाज्वाला समूहोंसे जटिल-व्याप्त और देवरूप नागोंके फणाओंसे निकले हुए विशाल फूत्कारशब्दमय जिसका मुख हुआ है ऐसा धनुष्य, पकडनेके लिये आये हुए धनुर्धर राजाओंको जलानेमें उद्युक्त हुआ। उस समय उसकी ज्वालासे राजा अपनी आखें मुंदकर वहांसे भागने लगे । दूसरे कितनेक राजा उन भयंकर सोको दूरसे देखकर खडे हो गये। कितनेक राजाओंका शरीर भयसे थरथर काँपने लगा और उन्होंने अपनी आंखें मुंद ली। दूसरे कोई राजा उसकी ज्वालासे आहत होकर जमीनपर गिर पडे। तथ अन्य कोई राजा धनुष्यकी तीव्र ज्वालाके तापसे पीडित होकर मूर्छित हो गये। ८७-९० ॥ अन्य कितनेक राजा कहने लगे- कि इस द्रौपदीसे हमारा कुछ प्रयोजन नहीं है। हम हमारे मंदिरमें आनंदसे जावेंगे और दीन, अनाथ तथा दरिद्री लोगोंको विपुल दान देंगे। कितनेक अन्य राजा ऐसा कहने लगे-हम अपने मंदिरमें अपनी स्त्रियोंके साथ क्रांडा करेंगे। यह सौंदर्यपूर्ण द्रौपदी हमें नहीं चाहिये; क्यों कि इसकी आशासे हमारे प्राणोंको यातना हो रही है ॥ ९१-९२ ॥ कई राजाओंने ऐसा कहा- हमें कामसुखकी अब इच्छा नहीं है। अब हम कुछ काल सुंदर ब्रह्मचर्यसे व्यतीत करेंगे। यह द्रौपदी अपने रूपसे सौंदर्यसे कई लोगोंको मारती है। कई लोगोंकी रागरूपी विषकी चालासे नष्ट करती है, और कईयोंको मदनके वेगसे मारती है अतः हे लोगो, यह कन्या महाविषवाली है ॥ ९३-९४ ॥ [राधावेधके कार्यमें दुर्योधन गलितगर्व हुआ] उस समय मनमें गर्ष धारण करता हुआ दुर्योधन कहने लगा-- मेरे बिना दुसरा कौन समर्थ है, जो कि राधाका वेध करेगा। मैं राधाके नाकका मौक्तिक विद्ध करूंगा ऐसा बोलकर लाल आंखवाला और सुंदर मुखवाला वह अपने स्थानसे ऊठा। गाण्डीव धनुष्यसे उत्पन्न प्रकाशमान ज्वालाओंसे व्याप्त होकर वहभी वहां ठहरनेमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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