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पश्चदशं पर्व स समालोक्य चोवाच शृणुराजन् समासतः। माकन्या यो बली ज्यायां गाण्डीववरकामुकम् रोहयिष्यति ते पुन्या द्रौपद्याश्च जनिष्यति। वरः कोऽपि बली श्रीमान्पुण्यवान्परमोदयः॥ इत्याकण्ये खगश्चायं गाण्डीवं वरकन्यकाम् । समादाय समागच्छन्माकन्यां कुन्दसघशाः॥ अभ्येत्य द्रुपदं तत्र प्रवृत्ति कन्यकोद्भवाम् । प्रजल्प्य जल्पवित्तस्मै ददौ गाण्डीवकार्मुकम्।।५८ ततस्तु द्रुपदो भूपो मण्डपन्यासमुत्तमम् । कुम्भकोद्भूतसत्स्तम्भं शातकुम्भसुतोरणम् ॥५९ वितानतानसंछन्नं मुक्तालम्बूषशोभितम् । नानाचित्रितसद्धेमभित्तिकापरिवेष्टितम् ॥६० पताकापटसंछन्नगगनं नगरोपमम् । विशाखाढ्यं समुत्तुङ्गमध्यवेदिमतल्लिकम् ॥६१ हटद्धाटकसंघदृघटितं स्तम्भमश्चकम् । अकारयजनाभोगभोग्यदं सुभगाकृतिम् ॥ तावता भूमिपाः सर्वे कर्णदुर्योधनादयः । यादवा मगधाधीशा जालन्धराश्च कौशलाः ॥६३ अभ्येत्य मण्डपे तस्थुर्महारूपसुशोभिनः । द्विजवेषधरास्तत्र पाण्डवाः पञ्च संस्थिताः॥६४ तावद्रुपदविद्येशावित्यकारयतां वराम् । घोषणां घोपनिर्भिन्नघनघोषां सुपोषणाम् ॥
विद्यायें उसके पास थीं। उसने मेरी कन्याका उत्तम वर कौन होगा ऐसा प्रश्न पूछा। नैमित्तिकने निमित्तज्ञानसे विचारकर कहा । हे राजन् सुनिए संक्षेपसे मै आपको कहता हूं। “ माकन्दीनगरीमें जो श्रेष्ठ और बलवान् पुरुष गाण्डीवनामक श्रेष्ठ धनुष्य चढायेगा वह तेरी कन्याका और द्रौपदीका वर होगा। वह बलवान्, श्रीमान् , पुण्यवान् और उत्कृष्ट अभ्युदयशाली होगा। यह उसका आदेश सुनकर कुन्दपुष्पके समान शुभ्र यश जिसका है, ऐसा वह विद्याधर गाण्डीव धनुष्य और अपनी सौंदर्यवती कन्याके साथ माकन्दीनगरीमें आया। द्रुपदराजाको अपनी कन्याके विषयमें वृत्तान्त उसने कह दिया। उत्तम वक्ता ऐसे उस विद्याधरने द्रुपदराजाको गाण्डीव धनुष्य दिया ॥५४-५८ ॥ तदनंतर द्रुपदराजाने उत्तम मंडपरचना की, उस मण्डपके स्तंभ सुंदर थे और उसके अग्रभागपर कुंभ लगे हुए थे । सुवर्णके तोरणसे वह सुंदर दीखता था । मण्डपमें सर्वत्र छत लगाया गया था, और उसको अनेक जगह मोतियोंके गुच्छे लगे हुए थे, उससे उसकी शोभा बढ़ गई थी। सुंदर नानाविध चित्रोंसे सज्जित सुवर्णभित्तियोंसे वह मंडप घिरा हुआ था। मण्डपके ऊपर लगे हुए पताकाओंके पटसे आकाश व्याप्त हुआ था। इसलिये वह मण्डप नगरके समान दीखता था। वह अनेक गलियोंसे-- विभागोंसे युक्त था और उसके मध्यमें वेदी बनाई थी। चमकनेवाले सुवर्णके समूहसे बनाये हुए पैरवाले मंचकोंसे वह मंडप शोभने लगा। वह मंडप लोगोंको विशाल सुख देनेवाला और सुंदर आकृतिका था ॥ ५९-६२ ॥ मंडप बन चुका, इतने में वहां महारूपसे शोभनेवाले कर्ण-दुर्योधन आदि राजा, समुद्रविजयादिक यादव राजा, मगधाधीश-जरासंधराजा, जालंधर देशका राजा, कौशल देशका राजा, ये सर्व राजा मण्डपमें आकर मंचकपर आरूढ हुए। तथा ब्राह्मण वेषधारी पांचों पाण्डवभी आकर बैठ गये ॥ ६३-६४ ॥ उस समय द्रुपद राजा और सुरेन्द्रवर्धन विद्याधर राजा
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