________________
३१०
पाण्डवपुराणम् द्रौपदी च परा पुत्री तयोरासीत्सुलक्षणा । सुरूपेण गुणैश्चापि या जिगाय शची पराम् ॥ मत्या मरालसत्पत्नी नखैस्ताराः सुपङ्कजम् । आरिणा कदलीस्तम्भं जङ्घया जघनेन च ।। कामक्रीडाग्रहं वाण नितम्बेन शिलां पराम् । सावर्ती सरसी नाभिमण्डलेन च वक्षसा ॥४६ कनकाद्रीतटं स्वर्णकुम्भौ नागकलङ्कितौ । स्तनाभ्यां हारपूर्णाभ्यां बाहुना कल्पशाखिकाम् ।। वक्रणेन्दुं स्वरेणैव पिककान्तां च चक्षुषा । मृगाङ्गनां सुवंशं च नासया विधिपत्रकम् ।।४८
• ललाटेन धमिल्लेन भुजंगं या जिगाय वै।।
कलाकुशलसंलीना तन्वङ्गी कठिनस्तनी ॥४९॥ पञ्चाभिः कुलकम् द्रुपदो वक्ष्यि तां पुत्रीं यौवनोन्नतिशालिनीम् । आहूय मन्त्रिणः प्राह विवाहार्थ विशांपतिः।। सचिवाः स्वस्वयोग्येन बोधेनोचुः परं वचः । अनेकशो वरान् दक्षान्दर्शयन्तो नृपात्मजान् ॥
कांस्कान्वीक्ष्य नृपेन्द्रोऽथ याच्याभङ्गभयादिति ।
आह स्वयंवरः ख्यातमण्डपः क्रियतां लघु ।। ५२ दूतानाहूय वेगेन सुलेखान्प्राहिणोन्नृपः । कर्णदुर्योधनादीनामानयनार्थमञ्जसा ॥५३ सुरेन्द्रवर्धनः खेटः खगाद्रौ सुखसाधनः । नैमित्तिकं समप्राक्षीत्कन्याया वरमुत्तमम् ॥५४
इंद्रके समान मनोहर थे ॥ ४३ ॥ द्रुपदराजा व भोगवतीको-द्रौपदी नामकी उत्तम लक्षणोंवाली कन्या हुई। उसने अपनी सुंदरतासे व अपने शीलादिक गुणोंसे उत्तम इंद्राणीको जीता था। उसने अपनी गतिसे हंसकी उत्तम पत्नीको अर्थात् सुंदर हंसनीको जीता था, उसने नखोंके द्वारा तारागण, पावोंके द्वारा सुकमल, जंघासे केलेका खंभा, जघनसे सुवर्णरचित मदनका क्रीडागृह, नितम्बसे उत्तम शिला नाभिमण्डलसे भंवरोंवाला सरोवर, छातीके द्वारा सुमेरुपर्वतका तट, हारयुक्त दो स्तनोंके द्वारा दो सोसे वेष्टित दो सुवर्णकलश, बाहुके द्वारा कल्पवृक्षकी शाखा, मुखसे चन्द्र, स्वरसे कोकिलकी कान्ताअर्थात् कोकिला, नेत्रोंके द्वारा हरिणी, नाकके द्वारा उत्तम सीधा बांस, विस्तीर्ण भालसे ब्रह्मदेवका लिखा हुआ पत्र, तथा केशोंकी-वेणीके आकारकी रचनासे सर्प ये पदार्थ उसने जीते थे। वह द्रौपदी कलाओंकी कुशलतामें लीन थी, कृशशरीरा और कठिन स्तनवाली थी ॥ ४४-४९॥ यौवनकी उन्नतिसे शोभनेवाली उस द्रौपदी. पुत्रीको देखकर राजाने मंत्रियोंको बुलाकर विवाहके संबंधमें पूछा ॥ ५० ॥ मंत्रिगण अपने अपने ज्ञानके अनुसार उत्तम-विचारपूर्वक भाषण करने लगे। उन्होंने अनेक चतुर राजपुत्र वरोंको दिखाया। राजाने किसी किसीको देखा, परंतु याचनाका भंग होनेकी भीतिसे उसने मंत्रियोंको स्वयंवरमंडप रचनेकी आज्ञा दी ॥५१-५२ ॥ राजाने कर्ण, दुर्योधनादिक राजाओंको शीघ्र लानेके लिये दूतोंको बुलाकर उनको स्वयंवरकी निमंत्रण पत्रिकायें देकर राजाओंके पास भेज दिया ॥ ५३ ॥ विजयार्धपर्वतपर सुरेन्द्रवधन नामक बिद्याधरराजा सुखोंके साधनोंसहित रहता था। अर्थात् अश्व, हाथी, पति, रथ, रत्नादिक सुख देनेवाली चीजें और अनेक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org