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पाण्डवपुराणम् तं निश्चलं परिज्ञाय विद्या प्रोवाच सद्भिरा। मां प्रसाध्य नरेन्द्राध मा त्याक्षीस्त्वं विचक्षण।। अहं स्वस्थानमुत्सृज्य त्वां प्राप्ता पुण्यतस्तव । मां तित्यक्षस्यहं जातोभयभ्रष्टा करोमि किम्।। कश्चिद्राज्यं परित्यज्य दीक्षित्वा च ततश्च्युतः। यद्वत्तद्वदहं जातोभयभ्रष्टा महामते ॥२६ स तस्याः कृपणं वाक्यमाकये कृतिनं मुनिम्। माणिभद्रोऽहमित्याख्याद्विनयी नयपेशलः।।
भविष्यति पतिः कोऽस्या विद्याया वद सत्वरम् । . . सोऽवचद्यक्ष भीमोऽस्या भविता पतिरुत्तमः ॥२८ स कः कथं पुनर्जेय इति पृष्टो मया मुनिः। जगाद जगदानन्दं विदधानः प्रमोदवाक् ॥२९ अत्रैव भरते हस्तिनागद्रङ्गे गुणोत्करैः। प्रचण्डो भविता पाण्डुस्तत्सुतो भीमनामभाक् ॥३० स सत्रं भ्रातृभिर्भामा समेष्यत्यत्र वन्दनाम् । त्रैलोक्यसुन्दरे चैत्ये कर्तुं भावपरायणः ॥३१ कपाटपिहितं द्वारं यः समुद्घाटयिष्यति । गदापतिः स एवात्र भविष्यति न संशयः॥३२ विद्याधरस्तथा चाहं श्रुत्वैवं खगनायकः । शिक्षा दत्त्वा सुविद्यायाः प्रावाजीन्मुनिसंनिधौ ॥ ततः प्रभृति तद्रक्षां कुर्वन्वो वीक्षितुं नृपान् । स्थितोऽद्यापि तथा वीक्ष्य तुष्टोऽस्मै च गदामदाम्
प्राप्ति हुई है, यही तुझसे उत्तम फललाभ हुआ ऐसा मैं समझता हूं ॥२२-२३॥ यह विद्याधर दीक्षा धारण करनेके कार्यमें दृढनिश्चयी है; ऐसा समझ विद्या मधुर भाषणसे कहने लगी, कि हे निपुण राजेन्द्र, मुझे सिद्ध करके तू मेरा त्याग मत कर। मैंने स्वस्थानको छोड दिया है। पुण्योदयसे तुझे मैंने प्राप्त किया है। यदि तू मेरा त्याग करेगा तो हे महाबुद्धिमन्, मैं उभयभ्रष्ट हो जाऊंगी। कोई पुरुष राज्यको छोडकर तप करने लगा और उससेभी वह भ्रष्ट हुआ वैसी मेरी भी परिस्थिति हुई है अर्थात् मैं उभयभ्रष्टा हुई हूं। हे महामते अब मैं क्या करू मुझे उपाय कहो ॥ २४-२६ ॥ उस विद्याका दीनवाक्य सुनकर उस माणिभद्र यक्षने अर्थात् मैंने उस कृतकृत्य मुनिराजको पूछा कि “ हे प्रभो, विनयवान् और नीतिचतुर ऐसा कौन पुरुष इस विद्याका खामी होगा ? आप शीघ्र कहिए। मुनीभरने कहा, कि भीमसेन इस विद्याका उत्तम खामी होनेवाला है। मैंने फिर मुनिराजसे पूछा, कि वह कौन पुरुष है और वह कैसे जाना जायगा । मेरा प्रश्न सुनकर जगत्को आनंदित करनेवाले मुनि अपनी आनंददायक वाणीसे इसप्रकार बोलने लगे ॥२७-२९॥ इसी भरतक्षेत्रमें हस्तिनापुरमें गुणोंके समूहसे युक्त और पराक्रमी पाण्डुनामक राजा होगा और उसको भीमनामक पुत्र होगा। वह भीम अपने भाईयोंके साथ इस त्रैलोक्यमें सुंदर जिनमंदिरमें भक्तितत्पर होकर वन्दना करनेके लिये आयेगा। जिनमंदिरका, जिसके किवाड बंद है, ऐसा दरवाजा जो उघाडेगा वही गदाविद्याका स्वामी होगा इसमें संशय नहीं है ॥ ३०-३२ ॥ विद्याधरोंका अधिपति विद्याधर घनवाहन और मैं (माणिभद्रयक्ष ) दोनोंने केवलिनाथका वचन सुना और · गदावियाको' हम दोनोंने कवलिकथित उपदेश दिया। तदनंतर मेघवाहनने केवलिभगवानके सन्निध दीक्षा ग्रहण की ॥ ३३ ॥ तबसे
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