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पश्चदशं पर्व
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शृणु खेचर विन्ध्याद्रौ केवलज्ञानसंभवः । क्षमाधरयतीन्द्रस्यात्राभूवनभासकः ॥१३ वयं तं वन्दितुं यामो लिप्सवो बोधसंपदम् । चिकीर्षवः सुकल्याणं धर्मामृतपिपासवः ॥१४ तच्छ्रुत्वा खेचरः सोऽपि प्रगत्य तक्रमाम्बुजम् । वन्दित्वा धर्मपीयूषं पपौ पापपराङ्मुखः ।। निर्विण्णो भवभोगेषु जिघृक्षुः संयमं परम् । स प्रार्थयन्मुनि दीक्षा क्षमाक्षिप्तक्षमः क्षमी ॥१६ गदाविद्या तदागत्य तमुवाच विचक्षणम् । अस्मत्साधनसंक्लेशं त्वं चकर्थ कृतार्थवित् ॥१७ सुसिद्धायाः फलं तस्या गृहाणागमकोविद । अन्यथा क्लेशसंपत्तिर्विहिता च कथं त्वया॥१८ प्रौढा दृढा गदाविद्या संगरे जयकारिणी । कीर्तिलक्ष्मीप्रदा दिव्या नानाभोगप्रसाधिनी ।। कथं संसाधिता सिद्धा चेत्कथंकथमप्यहो । त्वं तत्फलं गृहाणाशु गम्भीरो भव सर्वथा ॥ यत्प्रभावात्सुपर्वाणो भवन्ति भृत्यसंनिभाः। अन्येषां का कथा नृणां विरक्तस्तेन मा भवः ।। अवादीत्स गदाविद्यां श्रुत्वेति प्रवरं वचः। एतल्लब्धं फलं त्वत्तो विधे यन्मुनिसंगमः ॥२२ असाधयिष्यं नो विद्या चेदलप्सि कथं मुनिम् । अतस्त्वत्तः फलं प्राप्तं लब्धो यन्मुनिरुत्तमः
वह महामना-उदारचित्तवाला देव बोलने लगा- हे विद्याधर, विन्ध्यपर्वतपर क्षमाधर नामक मुर्नाश्वरको त्रैलोक्य प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । ज्ञानसम्पदाको चाहनेवाले हम उन केवलिनाथको वन्दन करनेके लिये जा रहे ह । धर्मरूपी अमृत पीनेकी हमें अभिलाषा है, तथा हम आत्मकल्याण करना चाहते हैं ॥११-१४॥ देवोंका उपर्युक्त भाषण सुनकर वह विद्याधरभी आकर केवलिनाथके चरणोंको वन्दन कर पापपराङ्मुख हुआ, और धर्मामृत प्राशन करने लगा। वह भव-संसार और भोगोंसे विरक्त हाकर संयम धारण करनेके लिये उद्युक्त हुआ। खोदना, जलाना इत्यादि अपराधोंको सहन करनेवाली क्षमाको यानी पृथ्वीको क्षमागुणसे जीतनेवाले क्षमाशील विद्याधर धनवाहनने मुनीश्वरको दीक्षाकी याचना की ॥१५-१६॥ गदाविद्या उस समय उस चतुर विद्याधरके पास आई। कृतार्थ-पुण्यकार्यको जाननेवाले हे घनवाहन, हमको सिद्ध करनेका संक्लेश तुमने उठाया है और हमारी प्राप्ति भी तुझें हुई है। तुम आगमके ज्ञाता हो अतः हमारे सिद्धिका फल तुम ग्रहण करो। यदि उसके फलोंको तुम नहीं चाहते हो तो इतना क्लेश तुमने उठाया ही क्यों ? यह गदाविद्या प्रौढ और दृढ है, युद्धमें जय देनेवाली है। इससे कीर्ति और लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। तथा यह दिव्य विद्या नानाभोगोंको देनेवाली है। ऐसी विद्या तुमने क्यों सिद्ध की ? तुम्हें इस विद्याकी सिद्धि बडे कष्टसे हुई है, इस लिये तुम सर्वथा गंभीर होकर इस विद्याके फलका अनुभवन करो। इस विद्याके प्रभावसे देवभी नौकरसे हो जाते हैं, तो अन्य पुरुषोंकी क्या कथा है ? इसलिये तुम विरक्त मत होवो ॥१७-२१॥ गदाविद्याका भाषण सुनकर वह विद्याधर उसे उत्तम भाषण बोलने लगा। हे विद्ये, मुझे जो मुनिसंगम हुआ वही मुझे तुझसे फलप्राप्ति हुई ऐसा मैं समझता हूं। यदि मैं विद्याकी सिद्धि नहीं करता तो मुझे मुनिराजकी प्राप्ति कैसे होती ? मुझे जो उत्तम मुनिकी
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