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पाण्डवपुराणम् अथ धर्मात्मजो राजा यक्षं पक्षीकृतं जगौ । हेतुना केन भीमाय त्वया दत्तं गदायुधम्॥२॥ तदावोचत्सुपक्षाढ्यो यक्षो रक्षितशासनः । शृणु भूप वदाम्येतत्कारणं दत्तिसंभवम् ॥ ३ ॥ मध्ये भारतमुत्तुङ्गो विजया? महाचलः । पूर्वापराब्धिसंस्पर्शी मानदण्ड इवापरः ॥४ पञ्चविंशतिरुत्तुङ्गः पञ्चाशद्विस्तृतो यकः । सपादषगतो मूले योजनानां महागिरिः ॥५ यश्च श्रेणिद्वयं धत्ते दक्षिणोत्तरभेदगम् । तत्र दक्षिणसच्छ्रेणौ नगरं रथनूपुरम् ॥६ तत्पतिः पातितानेकविपक्षो मेघवाहनः । तत्प्रिया प्रीतिदा प्रीतिमती नाम्नाऽभवद्वरा ॥७ धनवाहनसंसेव्यस्तत्सुतो धनवाहनः । विद्यासाधनसंसक्तो विक्रमाक्रान्तशात्रवः ॥८ राज्यविस्तीर्णतां वाञ्छन्विपक्षान्क्षेप्तुमुद्यतः । गदासिद्धिकरीविद्यासिद्धथै विन्ध्याचले गतः ।। तत्र साधयतो विद्यां चिरं तस्याभवद्गदा । सिद्धा सुविद्यया सिद्धा प्रसिद्धा च जगत्रये ॥१० चतुर्णिकायदेवौधा गच्छन्तो व्योम्नि तत्क्षणे | दृष्ट्वा विद्याधरेशेन विद्याविभववासिना ॥११ इमे कुत्र सुरा यान्ति गगने केन हेतुना । इति पृष्टः सुरः कश्चित्तेनोवाच महामनाः ॥१२
[गदाप्रदानकी कथा ] धर्मसुत राजा युधिष्ठिरने धर्मपक्षको धारण करनेवाले यक्षको पूछा। हे यक्ष, तुमने किस हेतुसे भीमको गदायुध दिया, कहो। तब धर्मपक्षमें तत्पर रहनेवाला, जिनशासनकी जिसने रक्षा की है, ऐसा यक्ष बोला, क हे राजन् गदा देनेका कारण मैं कहता हूं आप सुनिए। इस भरतक्षेत्रके मध्यमें ' विजयाई' नामक बडा ऊंचा पर्वत है। पूर्व और पश्चिम समुद्रको स्पर्श करनेवाला वह मानो पृथ्वीको मापनेके दण्डके समान दीखता है। वह महापर्वत पच्चीस योजन ऊंचा है, पचास योजन विस्तृत और सवाछह योजन मूलमें ह । यह पर्वत दक्षिण और उत्तर-भेदवाली दो श्रेणियाँ धारण करता है अर्थात् दक्षिण-श्रेणी और उत्तर-श्रेणी ऐसी दो श्रेणियाँ इस पर्वतपर हैं, उस दक्षिणश्रेणीमें रथनूपुर नामका नगर है ॥२-६॥ जिसने अनेक शत्रुओंका नाश किया है ऐसा मेघवाहन विद्याधर दक्षिणश्रेणीका स्वामी है। उसके प्रियपत्नीका नाम प्रीतिमति था। वह प्रेम करनेवाली और स्त्रियोंमें श्रेष्ठ थी। इन दोनोंको घनवाहन नामक पुत्र हुआ वह विपुलवाहनोंका अधिपति था। उसने अपने पराक्रमसे अनेक शत्रुओंको परास्त किया था और विद्यासाधनमें वह आसक्त था। अपने राज्यका विस्तार चाहनेवाला और शत्रुओंको पराजित करनेके लिये उद्युक्त वह धनवाहनराजा गदाकी प्राप्ति करानेवाली विद्याकी सिद्धिके लिये विन्ध्याचलपर गया। उस पर्वतपर दीर्घकालतक विद्याकी सिद्धि करनेवाले उस विद्याधरको सुविद्यासे गदा सिद्ध हुई। वह विद्या सिद्ध थी और जगत्रयमें प्रसिद्ध थी। अर्थात् वह विद्या अनादिकालसे थी और जगतमें उसकी सर्वत्र ख्याति थी ।। ७-१० ॥ विद्याका वैभव धारण करनेवाले उस विधाधीशने आकाशमें उसी क्षणं भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी देवोंको-चतुर्णिकाय-देवोंको जाते हुए देखा और ये देव आकाशमें किस हेतुसे कहां जारहे हैं ऐसा किसी एक देवको पूछा तब
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