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पञ्चदशं पर्व यो निर्भय॑ निशाचरं बरगति विद्याधरं च भृशम् नानायुद्धशतैः खगेशतनयां लब्ध्वा हिडिम्बां प्रियाम् । छित्त्वा दन्तिमदं वृषध्वजसुतामाप्त्वा गदाख्यायुधम्
लेभे श्रीविपुलोदरो जिनगृहद्वारं समुद्घाटयन् ॥ २११ ।। इति श्रीपाण्डवपुराणे भारतनाम्नि भट्टारकश्रीशुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपाल
साहाय्यसापेक्षे भीमपाण्डवकन्याद्वयप्राप्तिघुटुकसुतोत्पत्तिगजवशी_ करणगदालाभवर्णनं नाम चतुर्दशं पर्व ॥ १४ ।।
। पञ्चदशं पर्व । शीतलं शीललीलाढ्यं शीतलं ललिताङ्गकम् । लसल्लक्ष्मीविशालंच स्तुवे श्रीवृक्षलाञ्छनम् ॥१
लाभरूपी लीलाओंकी शोभासे युक्त, संपूर्ण सौख्योंकी सीमाको प्राप्त हुआ, उत्तम गतियुक्त स्त्रियोंके लाभोंसे युक्त यह उत्तम भीम सदा जयवंत रहे ॥ २१० ॥ जिसने वटवृक्षमें रहनेवाला पिशाच
और उत्तम गति जिसकी है ऐसे विद्याधरको अनेक युद्धोंके द्वारा निर्भसित किया अर्थात्-पराजित किया, तथा जिसने विद्याधरराजाकी कन्या हिडिंबाके साथ विवाह किया अर्थात् हिडिंबाकी प्राप्ति जिसे हुई, जिसने कर्णके हाथीका मद नष्ट किया और वृषभध्वज राजाकी कन्या प्राप्त की, तथा जिनमंदिरके दरवाजे खोलनेसे माणिभद्र यक्षसे गदाकी प्राप्ति जिसे हुई वह श्रीविपुलोदर अर्थात् भीम सदा जयवंत रहे ।।२११॥ ब्रह्म श्रीपालजीकी सहायता लेकर शुभचन्द्र-भट्टारकजीने रचे हुए भारत नामक पाण्डवपुराणमें भीमसेनको दो राजकन्याओंके साथ विवाह होना, घुटुकपुत्रकी प्राप्ति होना, गज वश करना और गदाकी प्राप्ति होना इनका वर्णन करनेवाला
चौदहवा पर्व समाप्त हुआ ॥ १४ ॥
[ पर्व पन्द्रहवां ] जो शीतलनाथ-जिन शीललीलासे परिपूर्ण थे अर्थात् अठारह हजार शीलोंका पालन करते थे, जिनके अवयव सुंदर थे इसलिये जो शीतल अर्थात् लोगोंके नेत्रोंको अह्वादक थे, जो सुंदर अनंतचतुष्टयरूपी लक्ष्मीसे विशाल थे और जिनका लाञ्छन श्रीवृक्ष था-ऐसे श्रीशीतल जिनेश्वरकी मैं स्तुति करता हूं ॥१॥
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