________________
चतुर्दशं पर्व
३०३ ततस्तयोः शुभे लग्ने विवाहमकरोन्नृपः । पुण्याद्भिक्षागतेनैव लब्धा तेन सुकन्यका ॥१८८ राज्ञा भक्तिभरणाशु प्रीणितास्तोषमागताः । कियदिनानि ते स्थित्वा निर्जग्मुस्तत्र पाण्डवाः ॥ ततः सोमोद्भवां रम्यां सरितं पाण्डुनन्दनाः । उत्तीर्य खेदनिर्मुक्ताः प्रापुर्विन्ध्याचलं वरम् ।। दरतस्तत्समुत्तुङ्गशृङ्गसङ्गी जिनगृहम् । अष्टापदे यथा स्वर्ण नानाशोभासमन्वितम् ॥१९१ दृष्ट्वा ते गन्तुमुद्युक्तास्तत्र श्रान्ता अपि स्वयम् । आरुरुहुर्महोत्तुङ्ग शृङ्गं विन्ध्याभिधाचलम्।। तत्र हर्षप्रकर्षेण प्रकृष्टाः पाण्डुनन्दनाः । चैत्यालयं महाशालशुम्भच्छोभाविराजितम् ॥१९३ स्वर्णसोपानपत्याढ्यं नानावनविराजितम् । दत्ताररमहाद्वारं शुम्भत्स्तम्भसुशोभितम् ॥ समालोक्य समुद्विमा अभवन्भयवर्जिताः । तत्प्रवेष्टुमशक्तास्ते क्षणं खेदेन संस्थिताः ॥१९५ ततो भीमः समुत्थाय द्वारोद्घाटनसद्धिया । द्वारे दत्चा करं वेगात्कपाटमुदघाटयत् ॥१९६ मध्येगृहं प्रविष्टास्ते कुर्वन्तो जयनिःस्वनम् । स्वर्णरूप्यमयान्बिम्बान्ददृशुः श्रीजिनेशिनः ॥ पूजयित्वा फलैः पुष्पैरनध्यरर्घ्यदानतः । जिनांस्ते तुष्टुवुस्तुष्टा विशिष्टेष्टगुणोत्करैः ॥१९८ अद्यैव सफलं जन्म गतिरचैव सार्थका । अद्यैव सफले नेत्रे जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥१९९
१८७ ॥ तदनंतर शुभ लग्नमें राजा वृषध्वजने भीम और दिशानन्दाका विवाह किया। भीमको पुण्योदयसे भिक्षाको जाते हुए उत्तम कन्याकी प्राप्ति हुई। राजाने अतिशय भक्ति करके संतुष्ट किये हुए पाण्डव और कुछ दिनतक वहीं ठहर गये अनंतर वे वहांसे आगे प्रयाण करने लगे ॥ १८८-१८९॥
[ भीमके द्वारा जिनमंदिरोद्धाटन ] पाण्डुपुत्र तदनंतर सुंदर नर्मदा नदीको तैरकर खेदरहित होते हुए वे उत्तम विंध्यपर्वतको प्राप्त हुए। कैलास पर्वतपर नाना शोभाओंसे युक्त ऊंचे शिखरोंसे सहित जैसे सुवर्णरचित जिनमंदिर है, वैसा जिनमंदिर विन्ध्यपर्वतपर दूरसे देखकर वे पाण्डुराजाके पुत्र थके हुए थे, तो भी बिन्ध्यपर्वतके अतिशय ऊंचे शिखरपर चढने लगे। उसपर वह चैत्यालय ऊंचे तटकी चमकनेवाली कांतिसे रमणीय दिखता था। सुवर्णरचित सीडियोंकी पंक्तिसे सुंदर दीखता था। उसके आसपास अनेक प्रकारके बन होनेसे उसकी शोभा बढ गयी थी। उसका दरवाजा बडा था और उसके किवाड बंद थे। वह सुंदर खंबोंसे सुशोभित था। उसे देखकर भयरहित पाण्डव अतिशय हर्षित हुए, परंतु उसमें प्रवेश करनेमें वे असमर्थ होनेसे खिन्न होकर कुछ देर चुप बैठे। तदनंतर द्वार खोलनेकी सद्बुद्धिसे ऊठकर भीमने दरवाजेपर हाथ लगाकर जोरसे उसके किवाड खोले ॥ १९०-१९६ ॥ पाण्डव जिनमंदिरमें प्रवेश करके जय जय जय ऐसे शब्द करते हुए जिनेश्वरकी सुवर्णकी और चांदीकी प्रतिमायें भक्तिसे देखने लगे। उन्होंने अनर्थ्य-उत्कृष्ट ऐसे पुष्पोंसे और फलोंसे उनकी पूजा की और अर्घ्य देकर विशिष्ट और इष्ट ऐसे गुणोंके द्वारा वे जिनेश्वरोंकी स्तुति करने लगे ॥१९७-१९८॥ " हे प्रभो जिनेन्द्र, आपके दर्शनसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org