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पाण्डवपुराणम्
विप्रवेषधरो धीमान्भीमो भव्यगुणाम्बुधिः । भिक्षार्थं भूपसद्माग्रे ययौ बलकुलाकुलः ॥१७७ तदा गवाक्षसंरूढा दिशानन्दा शुभानना । तं निरीक्ष्य निजे चित्तेऽचिन्तयच्चेति निर्भरम् || किमयं मन्मथो मानी नररूपं समाश्रितः । भिक्षाछलात्समायातो नान्यदृग्विधो भवेत् ॥ मेषोन्मेषविनिर्मुक्तां तदासक्तां नृपस्तदा । ज्ञात्वा तां दातुमुद्युक्तः समाकारयति स्म तम् ॥ अप्राक्षीद्भूपतिर्विप्र किमर्थमागतोऽसि भोः । भिक्षाथ चेद्गृहाण त्वं कन्याभिक्षां ममाग्रहात् ।। इत्युक्त्वा तां महारूपां नानाभरणभूषिताम् । तस्याग्रे धृतवान्भूपो दिशानन्दां सुनन्दिनीम् । भीमो भाणीत्तदा राजन्नाहं वेद्मि च वत्ति वै । मज्ज्येष्ठसोदरः वास्ते स भूप इत्यबीभणत् ॥ रोपान्ते स्थितचेति भीमवाक्यान्महीपतिः । ज्ञात्वाभ्यर्ण चचालाशु तस्य भीमेन संयुतः ॥ युधिष्ठिरसमीपं च गत्वा नत्वा समाहितः । पप्रच्छ कुशलं स्नेहादन्योन्यं स्नेहसंगतः ॥ १८५ अभ्यर्थ्य ते पुरं नीता राज्ञा भोजनभक्तितः । आवर्जितः समर्ज्याशु सुखं तस्थुः पुरे बरे || भीमेन सह कन्याया विवाहार्थं युधिष्ठिरः । अभ्यर्थितो नृपेन्द्रेण तथेति प्रतिपन्नवान् ॥१८७
पाण्डवोंको छोडकर भीम भिक्षाके लिये नगरमें आगया । ब्राह्मणवेषके धारक विद्वान्, सुंदर, गुणोंका समुद्र, बलसमूहसे भरा हुआ - महाबली, भीम भिक्षाके लिये राजाके घर के आगे आया । ॥ १७६–१७७ ॥ उस समय सुंदर मुखवाली दिशानंदा राजकन्या खिडकीमें बैठी थी, भीमको देखकर वह अपने मनमें इस प्रकार गाढ चिन्ता करने लगी । " क्या मनुष्यरूप धारण किया हुआ यह अभिमानी मदन है ? क्यों कि भिक्षाके निमित्तसे आया हुआ दूसरा व्यक्ति " इतना सुंदर नहीं हो सकता । " नीचे और ऊपर जिसकी पलकें नहीं होरही हैं ऐसी अर्थात् निश्चल पलकोंवाली अपनी कन्याको देखकर राजाने ' इस ब्राह्मणपर यह कन्या आसक्त हुई है' ऐसा जाना और उसको देनेके लिये उसने उस ब्राह्मणको अपने प्रासादमें बुलाया ॥ १७८-१८० ॥ राजाने ' हे ब्राह्मण आप किस लिये आये हैं ऐसा पूछा, भिक्षाके लिये आये हो तो मेरे आग्रहसे इस कन्यारूपी भिक्षाका स्वीकार कीजिए" ऐसा बोलकर अनेक अलंकारोंसे - दिशानन्दा कन्याको उसके आगे राजाने खडा करा दिया ॥ १८१ - १८२ ।।
भूषित महासुंदर उस समय ' हे
• राजन् मैं इस विषय में कुछ नहीं जानता हूं, मेरा ज्येष्ठ भ्राता जानता है' ऐसा भीमने कहा । 'आपका ज्येष्ठ भाई कहां है ऐसा राजाने फिर पूछा, 'नगरके समीप रहा है' ऐसे भीमके वाक्यसे • जानकर उसके साथ राजा युधिष्टिर के पास शीघ्र गया ।। १८३ - १८४ ॥ राजाने युधिष्ठिर के समीप जाकर आनंद से नमस्कार किया। और अन्योन्यके स्नेहसे युक्त होकर प्रेमसे कुशल प्रश्न पूछे । राजा प्रार्थना करके उन पाण्डवोंको नगर में ले गया। उसने भोजनकी भक्तिसे उनका आदर किया। आदरका स्वीकार कर वे उस नगर में सुखसे रहने लगे । राजाने भीमके साथ कन्या के विवाह के लिये युधिष्ठिरको प्रार्थना की तब युधिष्ठिरने राजाको अनुमति दी ॥ १८५
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