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चतुर्दशं पर्व नगरं व्याकुलीकृत्य कुर्वन्पथि सुवेपथुम् । श्रुतो भीमेन सत्कर्णे स आजग्मे तदन्तिकम् ॥१६५ रक्ष रक्षेति कुर्वाणा जनाश्च श्रीवृकोदरम् । प्रोचुः शरणमापना भयकम्पितविग्रहाः ॥१६६ भवता बलिना विप्र रक्ष्येयं विपुला प्रजा । यतस्त्वं बलिनां मान्यो नाम्नासि विपुलोदरः॥ ततः सोऽपि समुत्तस्थे गजं जेतुं मदोद्धरम् । वज्रघातनिभेनाशु मुष्टिघातेन ताडयन् ॥१६८ पद्भ्यां संचूर्णयन्पादाञ्गुण्डादण्डं विखण्डयन् । दन्तावुन्मूलयन्भीमो निर्मदं च चकार तम्॥ तदा कश्चिन्नृपं गत्वा न्यवेदयदिति स्फुटम् । देवैकेन सुविप्रेण प्रचण्डेन गजो हतः ॥१७० यो रणे शत्रुभिः शक्यो गजः साधयितुं न हि । सोऽनेन क्षणतो नीतो निर्मदत्वं महाबलात् ॥ स त्वया देव निग्राह्यो विग्रहेण विना छलात् । ब्रुवन्तमिति कर्णेशस्तं निवार्य सुखं स्थितः ॥ तत्र ते जयमापन्ना नीत्वा कालं च कंचन । निर्गताः पाण्डवाः प्रापुर्वैदेशिकपुरं पराम् ॥ नृपो वृषध्वजो यत्र वृषध्वजो विराजते । दिशावली प्रिया तस्य दिशाव्याप्तमहायशाः॥ दिशानन्दा महाशुद्धा तयोरासीत्सुता वरा । जघनस्तनभारेण गच्छन्ती लीलया च या॥ तत्र तान्पाण्डवान्मुक्त्वा संगतान् श्रमसंगतान् । शेषान्बुभुक्षितान्भीमः पुरं भिक्षार्थमाययौ ।।
घूमने लगा। यह वार्ता भीमके कानपर आकर पडी, और वह हाथी भीमके पास आगया। उस समय भयसे जिनका शरीर कँप रहा है और हमारी रक्षा करो। हमारी रक्षा करो ऐसे बोलनेवाले लोग श्रीवृकोदर भीमको शरण आये “हे विप्र तू बलवान् है। इन विपुल प्रजाका इस समय रक्षण कर । क्यों कि तूं बलवान लोगोंमें मान्य है और नामसे विपुलोदर है" ॥ १६३-१६७ ॥ तदनंतर वह भीमभी मदोत्कट हाथीको जीतनेके लिये तयार हुआ । वज्रके आघात सरीखी मुष्टिओंसे ताडन करनेवाले, अपने पावोंसे हाथीके पावोंका चूर्ण करनेवाले और शुण्डादण्डको तोडनेवाले तथा उसके दातोंको उखाडनेवाले उस भीमने उस हाथीको मदरहित किया ॥१६८-१६९|| उस समय किसी मनुष्यने राजाके पास जाकर इस प्रकार कहा, कि, "हे देव एक प्रचण्ड ब्राह्मणने हाथी मार दिया, जो कि शत्रुओंके द्वारा रणमें जीता जाना शक्य नहीं था। उस ब्राह्मणने अपने महासामर्थ्यसे क्षणमें उसे निर्मद किया। हे देव आप युद्धके बिना छलसे उसका निग्रह करें। ऐसे बोलनेवाले उस मनुष्यका कर्णराजाने निवारण किया और वह सुखसे रहने लगा ॥ १७०-१७२ ॥ - [भीमका दिशानंदा राजकन्याके साथ विवाह ] उस चम्पानगरीमें जयको प्राप्त हुए पाण्डव कुछ कालतक ठहरकर वहांसे निकले, और उत्तम वैदेशिक नगरको वे पहुंच गये । उस नगरीका बैलकी वजा धारण करनेवाला वृषध्वज नामक राजा वहां विराजमान था। जिसका महायश दिशाओंमें व्याप्त हुआ है, ऐसी दिशावली नामकी प्रिय रानी थी। उन दोनोंको अतिशय पवित्र और सुंदर ‘दिशानंदा' नामक कन्या थी। जो कि जघन और स्तनोंके भारसे लीलासे गमन करती थी ॥ १७३-१७५ ॥ जिनको श्रम हुआ है ऐसे भूखे बाकीके सब
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