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________________ २९४ पाण्डवपुराणम् तावत्संध्यामुखे वैश्यवनिता विललाप च। दुःखिता दैन्यतो दीनं विलपन्ती महाशुचा ॥८२ तदा कुन्ती कृपाक्रान्ता तामाश्वास्य गतान्तिकम् । अप्राक्षीत्खेदसंखिन्नां बाष्पाकुलविलोचनाम् ॥ ८३ कथं रोदिपि रे बाढं गाढं शोकसमाकुला । अबीभणद्वणिग्भार्या श्रूयतामत्र कारणम् ।।८४ अत्र श्रुतपुरे श्रीमान्बको नाम महीपतिः। बकवद्वषहीनात्मा लोकपालनकोविदः ॥८५ पललासक्तचित्तेन मतिर्दधे पलेऽनिशम् । सूपकारः सदा दत्ते तिरश्चां तस्य मांसकम् ।।८६ हन्ति हन्त हतात्मा स तिरश्चां समजं तदा। संस्कृत्य पललं तस्मै दत्ते दीनो दयातिगः॥ एकदा पशुमांसस्थालाभतः पाककारकः । तदानीं मृतिमापन्नं बालं गर्तस्थमानयत् ॥८८ तदामिषं च संस्कृत्य संपच्य पचनोत्सुकः । सूपकारः सुभूपायार्पयत्खादितुमञ्जसा ।।८९ भूपोऽपि तरसं तूर्णमदित्वा सरसं मुदा। सहर्षः सूपकारं तं न्ययुक्त रसनाहतः॥९० पाककार शुभं पक्कं तरसं तरसा कुतः। आनीतं स्वाददं रम्यं न दृष्टं चेह ब्रूहि भोः॥९१ अभयं याचयित्वासौ बभाण भयभीतधीः । नरकव्यमिदं राजन्दत्तं तुभ्यं विपच्य च ॥९२ वह वैश्यस्त्री दारिद्यसे दुःखी थी और महाशोकका कारण मिल जानेसे अधिक शोक करने लगी कुन्तीको उसका शोक सुनकर दया आई। वह उसको आश्वासन देकर उसके पास गई। जिसकी आखें अश्रुओंसे भरी हुई थी, जो खेदसे खिन्न थी, ऐसी वैश्यवधूको उसने पूछा कि तुम गाढ शोकसे व्याप्त होकर इतना अधिक क्यों रो रही हैं ? कुन्तीका प्रश्न सुनकर उस वैश्यपत्नीने इस विषयमें जो कारण है वह सुनो मैं कहती हूं ऐसा कहा ॥७९-८४॥ [बकनृपकथा ] इस श्रुतपुरनगरमें लक्ष्मीसंपन्न बक नामक राजा है। बगुलेके समान धर्महीन है। मांसभक्षणमें आसक्तचित्त होनेसे हमेशा मांसमें उसने अपनी बुद्धि लगाई है। उसका एक रसोईया था। वह उसे दररोज पशुपक्षियोंका मांस खिलाता था । वह निर्दयी हीनात्मा दीन रसोइया सदा पशुओंका समूह मारता, और उसका मांस पकाकर राजाको देता था। एक दिन रसोईयाको पशुमांस नहीं मिला तब उसने उसी दिन मरे हुए बालकको गढेमसे निकाला। घरमें लाकर पकानेमें उत्सुक होकर उसके मांसमें हींग, मिर्च, नमक, आदिक पदार्थ मिलाकर अर्थात् इन पदार्थोंसे संस्कृत करके उसने वह मांस पकाया और राजाको शीघ्र खानेको दिया। राजाभी उस सरस मांसको खाकर हर्षित हुआ। जिह्नालंपट होकर उसने रसोईयाको पूछा--हे रसोईया, शुभ ऐसा मांस शीघ्र तूने पकाया । वह तुझे कहांसे मिला । आजकासा स्वाद देनेवाला सुंदर मांस पूर्वमें कभी मैंने यहां नहीं देखा था। अतः उसका वृत्तान्त कहो। जिसकी बुद्धि भय-युक्त हुई है, ऐसे रसोईयाने अभयदानकी याचना की। अभय मिलनेपर वह कहने लगा कि "-हे राजन् आज मैनें आपको मनुष्यका मांस पकाकर खिलाया है-" राजाने कहा, हे. रसोईया, संस्कारसे संस्कृत हुआ यह मांस बहुत अच्छा था ।हे सूपकार मुझे हमेशा मनुष्यका मांसही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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