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चतुर्दशं पर्व
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समर्थो नरः कोऽस्ति य आयातो वनं मम । भो मनुष्याः कथं पादरजसा मलिनीकृतम् ॥ भीमो भीमासुरं वीक्ष्य तदाचख्यौ विचक्षणः । कथं गर्जसि वर्षाभूवद्वषो वा खलो यथा ॥ ७२ वयं पूताः सदाचारा मनुष्यत्वात्सुचक्रिवत् । मनुष्यत्वं सदापूतं तीर्थकुंञ्चक्रिविष्णुवत् ॥ ७३ यद्यस्ति विपुला शक्तिस्तदेहि देहि संगरम् । दर्शयाम्यसुरत्वस्य फलं प्रविपुलं किल ॥७४ इत्युक्त्वा बाहुयुगलप्रधनं कर्तुमुद्यतौ । भीमभीमासुरौ तौ च मल्लाविव महोद्धतौ ॥७५ युयुधातेविघातेन कम्पयन्तौ वसुंधराम् | त्रासयन्तौ मृगेन्द्रादीनिर्घोषणरणे तक || ७६ दुष्टमुष्टिप्रघातेन चूर्णितोऽसुरसत्तमः । भीमेन निर्मदीचक्रे सुदन्तीव मृगारिणा ॥७७ प्रणम्य चरणौ तस्यासुरोऽगाद्दासतां गतः । तेऽपि तूर्ण वनात्तस्मान्निर्गता गमनोत्सुकाः ॥ ततस्ते क्रमतः प्रापुः पुरं श्रुतपुरं परम् । तत्र चैत्यालये चित्राः प्रतिमाः पूजिताश्च तैः ॥७९ क्षणमास्थाय ते तत्र निशि वासाय सत्वरम् । वणिग्गेहं समाजग्मुः शयनं कर्तुमिच्छवः ॥८० तत्कुट्यां कुटिलायां ते विकटाः संकटापहाः । तस्थुः कथां प्रकुर्वाणाचैत्यचैत्यालयोद्भवाम् ॥
यह हमारा वन शीघ्र अपवित्र करनेकी तुम्हारी इच्छा है ? इस मेरे वनमें कोई मनुष्य आने में समर्थ नहीं है। परंतु तुम आये हो। तुम कौन हो ? बोलो ! हे मनुष्यों तुमने आकर मेरा वन अपनी चरणधूल से क्यों अपवित्र किया है ? " ।। ६६-७१ ॥ उस समय भीमासुरको देखकर चतुर भीमने कहा ‘हे असुर मडकके समान क्यों टरटर कर रहे हो । अथवा दुष्ट बैलके समान क्यों डुर डुर करते हो ? तीर्थकर और चक्रवर्तिके समान मनुष्य होनेसे हमही पवित्र और सदाचारी है। तीर्थकर, चक्रवर्ती और विष्णुके समान मनुष्यत्व हमेशा पवित्र है । यदि तुझमें विपुल सामर्थ्य हो तो आ जा और हमारे साथ लढ । आज तुझे असुरपनेका फल कैसा होता है सो मैं निश्चयसे दिखाता हूं ॥ ७२-७४ ॥ तब वे दोनों बाहुयुद्ध करनेके लिये उद्युक्त हुए। वे भीम और भीमासुर दो मल्लोंके समान अतिशय उद्धत थे । चरणोंके आघातसे पृथ्वीको थरथराते हुए और अपनी गर्जनासे सिंहादिको भय उत्पन्न करते हुए वे दोनों भीम और भीमासुर रणमें लडने लगे । दुष्ट ऐसी मुट्ठियों के आघातसे वह श्रेष्ठ भीमासुर भीमने चूर्णित किया अर्थात् वज्रके समान मुट्ठियोंके आघात से भीम उसको व्याकुल कर दिया। जैसे सिंह बडे हाथीको मदरहित करता है, वैसे भीमने उसको निर्मद किया । तत्र असुरने उसके चरणों को प्रणाम किया, और उसका वह दास हुआ । तत्र आगे जानेके लिये उत्सुक वे पाण्डवभी उस वनसे आगे शीघ्र चल दिये ॥ ७५- ७८ ॥ तदनंतर वे पाण्डव क्रमशः चलकर सुंदर श्रुतपुर नामक नगर में गये । वहां उन्होंने जिनमंदिरमें अनेक जिन - प्रतिमाओंका पूजन किया । क्षणपर्यन्त वहां रहकर वे रात्रिमें मुक्काम करनेके लिये निद्राकी इच्छा से एक वैश्यके घरमें आगये । संकटोंको हटानेवाले शूर पाण्डव उस टेढ़े मेढे घरमें जिनप्रतिमा और जिनमंदिरकी कथा कहते हुए ठहर गये। उतने में संध्या के प्रारंभमें उस वैश्यकी स्त्री शोक करने लगी ।
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