SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्दशं पर्व २९५ ब्रूते स्म भूपतिर्भव्यं क्रव्यं संस्कृतिसंस्कृतम् । मात्यं मह्यं महीयाश देयं वृप्तिकरं सदा॥९३ सूपकारस्ततो वीथ्यामित्वा डिम्भान्सुखेलितान् । मेलयित्वा ददौ स्वाद्यं खाद्यं तेभ्यः समोदकम् गच्छत्सु तेषु स सूपकारः पाश्चात्यबालकम् । गृहीत्वा मारयित्वा च ददौ तस्मै च तत्पलम्।। प्रतिवासरमेवं स कुर्वाणः कौतुकैर्जनः। दृष्टः पृष्टो नृपेणैतत्कारितं चेत्यवीवदत् ॥९६ ततः संमन्त्र्य सर्वैस्तैर्निष्कासितस्ततो बकः। स वने मारयत्याशु स्थित्वा लोकाननेकशः॥ ततो विमृश्य तत्रस्थैनरैरिति निबन्धनम् । चक्रेऽस्मै पुरुषो देय एकैकं प्रतिवासरम् ।।९८ एवं निबन्धने जाते गेहे गेहे दिने दिने। एकैकः पुरुषं दत्ते स्खदिनेऽस्मै जनोऽखिलः ॥९९ द्वादशाब्दा गता एवमध मत्पुत्रवासरः । समागतोऽस्ति तेनाहं संरोदिमि सुदुःखतः ॥१०० अद्यैव स्यन्दने खाद्यं निवेश्य मत्सुतेन च । मुक्त्वा महिपंसंयुक्तं दास्यते सकलैर्जनैः॥१०१ ममैकस्तनयस्तन्विः किं करिष्यामि तद्धतौ । किं मे न स्फुटति खान्तं न जाने केन हेतुना ॥ तदा कुन्ती कृपाक्रान्ता शान्तयित्वा वणिग्वधूम् । उवाच चतुरालापा चिन्तन्ती तत्सुखोदयम् ।। १०३ पकाकर दे। उससे मुझे संतोष प्राप्त होता है ।।८५-९३।। तदनंतर रसोईया मार्गमें जाकर खेलनेवाले बालकोंको एकत्र करके मोदकोंके साथ स्वादवाले खाद्य पदार्थ दररोज देने लगा। वे बालक मोदकादि लेकर अपने घरमें जाते थे, परंतु पछि रहे हुए बालकको पकडकर रसोईया ले जाता था, और मारकर उसका मांस राजाको खानेके लिये देता था। दररोज वह इस प्रकारसे बालकोंको मिठाई देता, और पीछेके एक बालकको ले जाकर मारता था। आश्चर्यचकित लोगोंने एकबार देखा और उन्होंने रसोईयाको पूछा। तब राजाने मुझे ऐसा कार्य करनेके लिये कहा है , ऐसा उत्तर उसने दिया। तब सर्व लोगोने विचार कर बकराजाको गाममेंसे निकाल दिया-निर्वासित कर दिया। तदनंतर बकराजा वनमें रहकर अनेक लोगोंको हमेशा मारने लगा ॥ ९४-९७ ॥ तदनंतर उस नगरके लोगोंने विचार करके ऐसा निर्बन्ध किया, कि इस बकराक्षसको दररोज एक एक मनुष्य देना चाहिये, इस प्रकारका निबध होनेपर सर्व लोग दररोज अपना अपना दिन आनेपर अपने अपने घरमेंसे एक एक मनुष्य देने लगे। इस. प्रकारसे आजतक बारा वर्ष हुए हैं । आज मेरे पुत्रका दिन आया है। उसको बकराक्षसके लिये देना पडेगा। इस लिये मैं दुःखसे रो रही हूं : आजही मेरा पुत्र रथमें खाद्यपदार्थों को रखकर भैसोंके साथ लोगोंके द्वारा दिया जानेवाला है। मुझे एकही पुत्र है। उसके मर. जानेपर मैं क्या करूं । मेरा हृदय क्यों नहीं फटता। किस हेतुसे वह इतना मजबूत बना है, मैं नहीं समझती" ॥ ९८-१०२ ॥ तब दयासे जिसका मन व्याप्त हुआ है, ऐसी कुन्तीने वैश्यपत्नीको सान्त्वना दी, और चतुर भाषा करनेवाली उसने उसके सुखकी प्राप्तिका विचार करते हुए एसा कहा। “हे वैश्यपत्नी तुम मत डरो, दिवस ऊगनेपर तुम्हारे पुत्रके रक्षण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy