________________
चतुर्दशं पर्व
क्रमेण ते महारण्यं शरण्यं सुशरीरिणाम् । विकटाटोपसंछन्नं पाण्डवाश्च प्रपेदिरे ॥ ३ पिपासापीडितो भूपो मार्गजातश्रमेण च । सूरतापपरिश्रान्तः समभूत्स युधिष्ठिरः ॥४ अहो भीम पदं दातुं न शक्नोमि तृषातुरः । स्थातव्यमत्र सर्वैश्च समुच्चार्येति संस्थितः ॥५ तदा तद्दुःखमक्ष्णा न क्षमो द्रष्टुं विकर्तनः । प्रतीचीं दिशमातस्थौ कः पश्येन्महदापदम् ॥ तदा तिमिरवृन्देन व्याप्तः सर्वदिशां चयः । जलाक्तकज्जलाभेन मधुव्रतसमात्मना ॥७ तदा ब्रूते स्म भूपालः पिपासापरिपीडितः । रे भीम नीरमानीय मत्तृषां विनिवारय ॥८ तृषासक्ता न संसक्ताः शरीरपरिरक्षणे । सरणीं सर्तुमुद्युक्ता न भवन्ति कदाचन ॥९ इत्युक्त्वा धर्मजस्तस्थौ स्थिरायां स्थिरमानसः । तादृशं तं समावीक्ष्य भीमोऽभूद्भयविह्वलः ॥ सलिलं स समानेतुं तत्र संस्थाप्य सोदरम् । इयायान्यामरण्यानीं करकाक्रान्तसत्करः ॥११ जलकल्लोलमालाढ्यं विकसत्सुकुशेशयम् । क्वचिद्धंससमूहेन हसन्तं कोकनिस्वनैः ॥ १२ वदन्तं विस्फुराकारनानामुक्ताफलान्वितम् । आह्वयन्तं तृषा क्षुण्णान्परान्कल्लोलसत्करैः ॥ १३ तत्र पद्माकरं वीक्ष्य भीमोऽभूद्भीतिवर्जितः । कमलाक्रान्तसद्व करकं कमलैर्भृतम् ॥ १४
२८७
आये ॥२- ३॥ मार्ग में चलने के श्रमसे और सूर्यके संतापसे थके हुए युधिष्ठिरराजाको प्याससे अतिशय दुःख हुआ । भीम, मैं प्यास से अत्यंत पीडीत हूं, और आगे एक कदमभी रखने में असमर्थ हूं। अब यहां मेरे साथ आप सब लोग ठहरें " ऐसे वचन बोलकर युधिष्ठिर वहांही बैठ गये ॥४-५॥ तब युधि - ष्ठिरका दुःख आंखोंसे देखने में असमर्थ होकर सूर्य पश्चिम दिशाको जाने लगा । योग्यही है कि, बडोंकी आपत्तिको देखना कौन चाहेगा ? तब जलाई कज्जल के समान कान्ति जिसकी है, तथा जो भ्रमरके समान काला है, ऐसे अंधकारके समूहसे समस्त दिशायें व्याप्त हुईं । युधिष्ठिर राजाने प्याससे पीडित होकर 'हे भीम ! पानी लाकर मेरी प्यास बुझाओ ' ऐसा कहा । योग्यही है, कि जो प्याससे अतिशय पीडित होते हैं, वे अपने शरीरकी रक्षा करने में असमर्थ होते हैं । तथा वे कभी भी मार्ग में प्रयाण करनेकी इच्छा नहीं रखते हैं अर्थात् प्याससे विकल होनेपर वे चल नहीं सकते हैं " ऐसा कहकर स्थिर चित्तवाले धर्मराज जमीनपर बैठ गये । उनकी ऐसी करुणाजनक अवस्था देखकर भीम भयसे व्याकुल हुआ ।। ६-१० ॥ उस वनमें धर्मराजको बैठाकर जिसके हाथमें कमंडलु है ऐसा भीमसेन पानी लानेके लिये दुसरे वनमें गया ॥ ११ ॥ वहां भीमने एक सरोवर देखा, उसमें खूप पानीकी लहरें उठतीं थीं। वह विकसित कमलोंसे सुंदर दीखता था । उसमें कहीं कहीं हंससमूह विहार करता था मानो वह हँस रहा था । कोकपक्षियोंके शब्दसे मानो वह बोल रहा था । वह चमकनेवाले नाना मोतियोंसे युक्त था और प्यास से पीडित लोगों को तरंगरूपी हाथोंसे बुलाता था । उसको देखकर भीम भयरहित हो गया। उसने कलश में पानी भरकर लिया और उसका मुख कमलसे आच्छादित किया। इसके अनंतर वह भीम मानो पवन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org