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पाण्डवपुराणम् देशेऽशेषपुरे वने प्रविपुले संपूजितो भूमिपैः वामाभिर्वरवाञ्छितार्थफलदो रेजे यथा देवराट् ॥१६६ कास्ते हस्तिपुरं सुहस्तिनिनदैः संनन्दितं सर्वदा कास्ते कौशिकपत्तनं क वनितालाभः सतां संमतः । कौशाम्बी च पुरी क विन्ध्यतनया निःशृङ्गसत्पत्तनम्
कास्त्येकादशकामिनीसुपतिता कैतत्फलं पुण्यजम् ॥ १६७ इति श्रीपाण्डवपुराणे भारतनाग्नि शुभचन्द्रप्रणीते ब्रह्मश्रीपालसाहाय्यसापेक्षे पाण्डवपरदेश
गमनयुधिष्ठिरकन्यालाभवर्णनं नाम त्रयोदशं पर्व ॥ १३ ॥
। चतुर्दशं पर्व । पुष्पदन्तं सुकुन्देद्धपुष्पदन्तं जिनेश्वरम् । पुष्पदन्ताभमानौमि पुष्पदन्तात्तपत्कजम् ॥१ ततश्चेलुर्महाचित्ताश्चञ्चला मलवर्जिताः । पश्यन्तः परमां शोभा वीथीनां व्यथयातिगाः ॥२
युधिष्ठिर महाराज देवोंके राजा इंद्रके समान इच्छित पदार्थ देते हुए शोभने लगे ॥ १६६ ॥ उत्तम हाथियोंकी गर्जनाओंसे सर्वदा मनोहर ऐसा हस्तिनापुर नगर कहां और कौशिकपुर कहां ? सज्जनोंको मान्य ऐसी स्त्रियोंका लाभ कहां तथा कौशाम्बी पुरी कहां और विन्ध्यसेन राजाकी कन्या वसंतसेना कहां ? त्रिशंगपत्तन नामक नगर कहां और ग्यारह राजकन्याओंका पति होना कहां और यह पुण्यका फल कहां? तात्पर्य यह है, कि पुण्यसे दुर्लभसे दुर्लभ वस्तुओंकीभी प्राप्ति होती है। यह सब पुण्यहीका फल है। ॥ १६७ ॥ ब्रह्म श्रीपालजीकी सहायता लेकर शुभचन्द्रभट्टारकजीने रचे हुए भारत नामक पाण्डव-पुराणमें पाण्डवोंका परदेश गमनका और युधिष्ठिरको कन्यालाभका
___ वर्णन करनेवाला तेरहवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥ १३ ॥
[पर्व १४ वा] जो सूर्य और चन्द्रकी कान्तिके समान कान्ति धारण करते हैं, पुष्पदन्त नामक गणधर देवने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की है, उत्तम कुन्दके प्रफुल्ल पुष्पसमान जिनके दांत हैं ऐसे पुष्पदन्त जिनेश्वरकी मैं स्तुति करता हूं ॥१॥
- [धर्मराजके लिये भीमका पानी लाना ] तदनंतर महामना उदार चित्तवाले, मलवर्जितकपटरहित ऐसे चंचल पाण्डव बाधाओंसे रहित होते हुए त्रिशृंगपुरकी गलियोंकी उत्कृष्ट शोभा देखते हुए उस नगरसे प्रयाण करने लगे। प्राणियोंके रक्षक और विस्तीर्ण शोभासे भरे हुए महावनमें वे पाण्डक
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