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________________ प्रयोदशं पर्व २८५ पुनः स क्षितिपो भक्त्या समुत्थाय नरेश्वरान् । गाढमालिङ्ग्य लक्ष्मीशो ननाम नतमस्तका विपुलं कुशलं सर्वेऽन्योन्यं प्रष्टुं समुद्यताः । साधर्मिणां हि वात्सल्यं परं स्नेहस्य कारणम् ॥ किंवदन्ती विधायाथ विविधां कुशलस्य च । तैः समं नृपतिर्भजे पुरं पुत्रीसमन्वितः ॥१५८ भोज्यभोजनभावेन भोजयित्वा खवेश्मनि। तान्भूपः प्रार्थयामास विवाहार्थ युधिष्ठिरम् ॥ ततो मङ्गलनादेन नदन्तमिव मण्डपम् । नृत्यन्तं च नटीनृत्यैर्हसन्तमिव मौक्तिकैः ॥१६० वदन्तमिव मालाभिर्मन्वानमिव मञ्चकैः। अन्यानिर्माप्य भूमीशो विवाहं विदधे वरम् ॥१६१ विवाहमङ्गलोद्भासिशातकुम्भीयकुम्भकाः। शोभन्ते मण्डपे रम्ये विवाहसमये तदा ॥१६२ . युधिष्ठिरस्तु पुण्येन समाप पाणिपीडनम् । प्रतीपदर्शिनीनां वै तासां मङ्गलनिस्वनैः ॥१६३ ताः कन्या नृपतिं प्राप्य पार्श्वस्थाश्वातिरेजिरे । कल्पवल्ल्यो यथा कल्पपादपं कल्पितार्थदम्॥ अहो पुण्यद्रमः सातं फलतीहान्यजन्मनि । ततो वृषो विधातव्यो विविधार्थो वृषार्थिभिः॥ इत्थं पुण्यविपाकतो नरपतियुद्धे स्थिरः सुस्थिरः विख्यातस्तु युधिष्ठिरो वरवधूलाभेन संलम्भितः। उनको नमस्कार किया ॥१५५-१५६॥ वे राजा और पाण्डव एक दूसरेका विपुल कुशल पूछनेके लिये उद्युक्त हुए। योग्यही है कि साधर्मियोंका वात्सल्यभाव स्नेहका प्रधान कारण होता है ॥१५॥ चण्डवाहन राजाने पांडवोंके साथ नाना प्रकारका कुशल-वार्तालाप किया और पाण्डवोंको साथ लेकर पुत्रियोंसहित वह अपने नगरको गया ॥ १५८ ॥ राजाने भोज्य-भोजन-भावसे पाण्डवोंको अपने घरमें भिष्ट भोजन देकर विवाहके लिये युधिष्ठिरकी प्रार्थना की ॥ १५९ ॥ तदनंतर राजाने विवाहमण्डप बनवाया, जो कि मंगलध्वनिसे मानो दूसरोंको बुलाता था, नटीयोंके नृत्योंसे मानो नृत्य कर रहा था, तथा मोतियोंसे मानो हँस रहा था, मालाओंकेद्वारा बोल रहा था, तथा मञ्चोंकेद्वारा अन्यलोगोंका आदर-सत्कार कर रहा था । तथा इस मण्डपमें युधिष्ठिरके साथ अपनी कन्याओंका राजाने उत्तम विवाह किया। विवाहके समय रम्य मण्डपमें विवाहमंगलके चमकनेवाले सुवर्णकुंम्भ शोभते थे। युधिष्ठिरराजाने मंगल शब्दोंके साथ उन राजकन्याओंके साथ पुण्योदयसे पाणिग्रहण किया। इच्छित पदार्थ देनेवाले कल्पवृक्षका आश्रय लेकर जैसी कल्पलतायें शोभती हैं वैसी वे राजकन्यायें राजा युधिष्ठिरको प्राप्त कर उसके समीप शोभने लगी । पुण्यवृक्ष इहलोकमें और परलोकमें अर्थात् अन्यजन्ममें सुस्वरूप फलोंको देता है। इसलिये पुण्यको चाहनेवाले लोगोंको नानाविध धनादि पदार्थ देनेवाले धर्मका आचरण करना चाहिये ॥१६०-१६५॥ इस प्रकारके पुण्योदयसे राजा युधिष्ठिर युद्धमें स्थिर हुए। इस पुण्योदयने प्रख्यात युधिष्ठिर राजाको उत्तम वधुओंके लाभसे संपन्न किया। देशमें और समस्त नगरोंमें और विपुल वनोंमें राजाओंने अनेक कन्याओंसे वह पूजित किया गया। अर्थात् अनेक कन्याओंके साथ युधिष्ठिर राजाने विवाह किये। ऐसे वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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