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पाण्डवपुराणम् कुलजानां यतः स्त्रीणामेक एव पतिर्भवेत् । निशम्येति वचोऽवादीयोगीन्द्रोऽवधिलोचनः॥ एष्यन्ति ते मुहूर्तान्ते पाण्डवाः पञ्च पावनाः। योक्ष्यध्वे तैः समं यूयं स्थिरा भवत सांप्रतम् ॥ इत्युक्ते सजनास्तत्र विस्मयव्याप्तचेतसः। दध्युः कथं समायातिस्तेषां हि ज्वलितात्मनाम् ।। तावता पाण्डवाः पञ्च पवित्राः समुपागताः। निःसहीति प्रकुर्वन्ति श्वेतवासोवहाः पराः॥ नुत्वा नत्वार्चयित्वा च जिनेन्द्रप्रतियातनाः। मुनि ववन्दिरे भूपा भक्तिसंदोहभाजनम् ॥ शशंसुस्ता मुनीन्द्रस्य बोधि सद्बोधभागिनः। अहो बोधो मुनीन्द्रस्य सर्वलोकप्रकाशकः ॥ पुनः कन्याः समावीक्ष्य युधिष्ठिरमहीपतिम् । बिडौनःसदृशं श्रीमियुतं तुतुपुरद्भुतम् ॥१५२ आगतान्नृपतीच्श्रुत्वा पाण्डवांश्चण्डवाहनः । धराधीशो मतिं दधे तत्र गन्तुं समुत्सुकः॥ घनगर्जनसंकाशैरातोद्यैर्दीप्तदिनखैः। घोटकैः सुघटाटोपैरायात्तान्मिलितुं नृपः ॥१५४ छाच्छन्नमहाव्योमा शोभमानगुणोत्करः । तत्रत्येष्ट्वा जिनान्युक्त्या दमितारिं ननाम च ॥
एकही पति होता है। राजकन्याओंका यह भाषण सुनकर अवधिज्ञान नेत्रके धारक दमितारि मुनीश्वरने कहा कि हे राजकन्याओं, आप चिन्ता न करें, अपना मन स्थिर करें, एक मुहूर्तके अनन्तर पवित्र पाण्डव यहां आनेवाले हैं, उनके साथ आपका संयोग होनेवाला है। आप इस समय चिन्तित न होवें। इसतरह मुनीश्वरके कहनेपर वहां जो सज्जन थे उनका मन विस्मयसे व्याप्त हुआ। जो अग्निमें जल चुके हैं उनका आगमन कैसे होगा, ऐसा वे विचार करने लगे। परंतु इतनेमें जिनमंदिरमें श्वेतवस्त्र धारण करनेवाले पांच पवित्र उत्तम पाण्डवोंने 'निःसही निःसही' कहते हुए प्रवेश किया। विपुल भक्तिसमूहके पात्र ऐसे पाण्डव राजाओंने जिनेन्द्रप्रतिमाकी स्तुति, नमस्कार और पूजा की अनंतर उन्होंने मुनीश्वरको वन्दन किया ॥ १४३-१५० ॥
[गुणप्रभादि राजकन्याओंसे धर्म राजका विवाह ] उत्तम बोधको ( अवधिज्ञानको ) धारण करनेवाले मुनीश्वरके रत्नत्रयकी (बोधिकी) उन राजकन्याओंने प्रशंसा की। श्रीमुनीश्वरका ज्ञान सर्व जगत्को प्रकाशित करनेवाला है, ऐसा कहकर राजकन्याओंने आश्चर्य व्यक्त किया। तदनंतर इन्द्रके समान, शरीर कान्ति, और सौन्दर्ययुक्त ऐसे युधिष्ठिर राजाको देखकर वे राजकन्यायें आश्चर्यके साथ खुश हो गयीं। चण्डवाहन राजाने सुना कि प्रचण्ड पाण्डवोंका जिनमंदिरमें आगमन हुआ है। उसने उत्सुक होकर वहां जानेका विचार किया। मेघगर्जनाके समान जिन्होंने दिशाओंको व्याप्त किया है ऐसे वाद्योंके साथ तथा उत्तम रचना और शोभा जिनकी हैं ऐसे घोडोंके साथ राजा चण्डवाहन पाण्डवोंको मिलनेके लिये आया ॥१५१-१५४|| छत्रसे आकाशको व्याप्त करनेवाला, और जिसका गुणसमूह शोभता है ऐसे चण्डवाहन राजाने जिनमंदिरमें आकर प्रथम जिनेश्वरकी युक्तिसे अर्थात् मन-वचन-कायकी एकाग्रतासे पूजा की । अनंतर उसने दमितारि मुनीश्वरको वंदन किया। पुनः लक्ष्मीपति उस राजाने भक्तिसे उठकर पाण्डवोंको गाढ आलिंगन दिया और नम्रमस्तक होकर
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