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________________ २७८ पाण्डवपुराणम् अथान्यथा प्रव्रज्या तां गृह्णीयाः प्रार्थितेति च । स्थिरा स्थिता ममाभ्यणे कुर्वन्ती तनुशोषणम्।। एषा संयममिच्छन्ती रसत्यागविधायिनी । कायोत्सर्गकरा तन्वी चकार दुर्धरं तपः॥८८ लसच्छीलसलीलाढ्या सुचारुचरिता चिरम् । शुद्धसिद्धान्तसंसिद्धथै शुश्रावैषा शुभं श्रुतम्॥ विन्ध्यसेनसुतात्यचिन्तयच्चेतसि स्फुटम् । किमियं सुगुणा कुन्ती किमेते पञ्च पाण्डवाः॥९० अथ सा प्राह कन्येति का त्वं सुन्दरि मन्दिरे। गुणानां श्रेयसाकीर्णे प्रकीर्णकधमिल्लके।।९१ का त्वं सर्वगुणाकीर्णा क एते. पञ्च पूरुषाः । वद वत्से विचारशे यथावद्भक्तवत्सले ॥९२ साभाणीत्कन्यके शीघ्रं शृणु तत्त्वं मयोदितम् । वयं तु ब्राह्मणाः सर्वे ब्रह्मविद्याविशारदाः॥ दैवज्ञाहं ततस्तेन मदुक्ते निश्चयं कुरु । हसित्वेत्यवदत्कुन्ती तत्संजीवनसिद्धये ॥९४ हे पुत्रि त्वं पवित्रासि पुण्यासि त्वं महाशुभे । गुणज्ञासि गुणाधारे परमासि महोदये ॥९५ शुद्धं धारय शीलं त्वं यावजीवं च जीवनम् । प्रव्रज्याशां परित्यज्य स्थिरा भव गृहिव्रते ॥ कदाचित्तव पुण्येन ते भविष्यन्ति जीविनः । तादृशां मरणं कर्तुं न क्षमन्ते सुरा अपि ॥९७ भोग कर तू स्थिर हो जावेगी, सुखी होगी। यदि युधिष्ठिरका मरण हुआ है ऐसा निश्चय होगा तो तू दीक्षा ले सकेगी।" ऐसी मातापितादि लोगोके द्वारा प्रार्थना करनेपर यह कन्या मेरे पास आकर अपना शरीर तपसे कृश करती हुई रही है। संयमकी इच्छुक इस कन्याने रस-- त्याग तप धारण किया है, शरीरपरकी ममताको छोडकर इस कन्याने दुर्धर तप किया है। सुंदर शीलमें यह कन्या लीलासे तत्पर रहती है। इस प्रकारसे सदाचारका पालन बहुत दिनोंसे कर रही है। शुद्धसिद्धान्तोंका ज्ञान होनेके लिये यह कल्याणकारक शुभ श्रुत-शास्त्र हमेशा सुनती है। ॥७८-८९ ॥ विंध्यसेन राजाकी कन्या वसन्तसेनाने मनमें इस प्रकारसे स्पष्ट विचार किया-क्या यह वृद्धा सद्गुणी कुन्ती तो नहीं है ? तथा ये इसके पांचो पुत्र पाण्डव तो नहीं होंगे ? इसके अनंतर उस कन्याने कुन्तीसे इस प्रकार कहा-“ हे सुंदर माताजी, आप गुणोंका मंदिर हैं, आप हितकर कार्योसे परिपूर्ण हैं, अर्थात् आप हित करनेवाली हैं, आपके केश चामरके समान सुंदर हैं, मैं आपसे पूछती हूं कि संपूर्ण गुणोंसे युक्त आप कौन हैं तथा ये पांच पुरुष कौन हैं । हे माता, आप योग्य विचारोंको जानती हैं, तथा भक्तवत्सल हैं। मुझे आप उत्तर दें।" कन्याका भाषण सुनकर कुन्तीने कहा कि "हे कन्ये, मैं जो तत्त्व-वास्तविक स्वरूप कहती हूं वह तू शीघ्र सुन । हम तो सब ब्राह्मण हैं। ब्रह्मविद्यामें चतुर हैं। मैं ज्योतिष जानती हूं अतः मेरे भाषणपर तू विश्वास रख ।" इस प्रकारका भाषण कुन्तीने कन्याके उत्तम जीवनके लाभके लिये हंसकर कहा। " हे पुत्री तू पवित्र है, पुण्यवती है और महा शुभाचरणवाली है। हे कन्ये, तू गुणोंको जाननेवाली और गुणोंका आधार है । तू उत्तम लक्ष्मीसे युक्त और महान् अभ्युदयसे युक्त होनेवाली है। हे सुते, तू आजन्म शुद्धशीलको धारण कर । क्यों कि वही वास्तविक जीवन है। दीक्षाग्रहणकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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