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________________ त्रयोदशं पर्व २७७ नृपेणैषा सुमन्त्र्याशु विचकल्पे सुकल्पनैः। साकल्या पाणिपीडार्थ युधिष्ठिराय महीमुजे ॥७६ अनेहसा ततो दग्धाः पाण्डवाः कौरवेशिमिः। श्रुताः श्रुतौ जनैः सर्वैर्दुःखसंपीडितात्मभिः॥ श्रुत्वैवातर्कयश्चित्ते किमिदं च विरूपकम् । भदग्धिभवं जातं किल्बिषं चात्र कारणम् ॥७८ अनयेति चिरं चित्ते चिन्तितं चतुरेच्छया। युधिष्ठिरं विना नाथं न करिष्ये परं नरम्॥७९ अयं दग्धस्ततस्तूर्ण करिष्ये परमं तपः। यतो नाप्नोमि कमैतनिन्धं सर्वैर्भवे भवे ॥८० दीक्षोद्यतां समावीक्ष्य पित्राद्या दुःखपूरिताः। एनां संवेगसंपन्नां बोधयामासुरुन्नताम् ॥८१ सुते पल्लवसत्पाणे परे कमलकोमले । हिमांशुवदने पद्मपादे सन्नादसुन्दरे ॥८२ कायं ते कोमल कायः केदं च दुष्करं तपः। शक्यं दन्तैर्यथा लोहहरिमन्थनमन्थनम् ॥८३ समीहसे च चेद्दीक्षां कियत्कालं स्थिरा भव । शान्तिकाभ्यर्णतस्तूर्ण सुश्रुति शृणु सर्वदा।।८४ वृषतस्तव निर्विनः कदाचित्स भविष्यति । ईदृशः खलु सुश्रेयान् स्वल्पायुर्न प्रजायते ॥८५ सति जीवति तस्मिंश्च तेनोपयममङ्गलम् । प्राप्य सौख्यं समासाद्य स्थिरा भव सुवासिनि ॥ कलाओंमें और नानाविध शास्त्रोंके ज्ञानमें चतुर है ॥ ७३-७५ ॥ राजा विन्ध्यसेनने अनेक शुभ विचारोंसे अच्छा विचार करके ऐसा निश्चय किया कि, सुंदर वेषवाली यह कन्या युधिष्ठिर राजाको विवाह करके अर्पण करना चाहिये । परंतु कुछ काल बीतनेपर कौरवोंने पाण्डवोंको जलादिया है ऐसी वार्ता कानोंपर आई । सब लोगोंका चित्त इस वार्तासे अत्यंत दुःखित हुआ। ॥ ७६-७७ ॥ यह वार्ता सुनकर कन्याने ऐसा अयोग्य कार्य कैसे हुआ इस विषयका विचार किया। पतिके जलकर मरनेमें पापही कारण है ऐसा उसने जाना। अब मैं युधिष्ठिरके बिना अन्य पुरुषको अपना पति नहीं समझूगी ऐसा, उत्तम इच्छावाली कन्याने दीर्घकालतक चित्तमें विचार करके निश्चित किया है। पति तो जल गया। अब मै शीघ्र उत्तम तप करूंगी जिससे सर्व लोगोंद्वारा निंदनीय यह पापकर्म मुझे प्रत्येक भवमें प्राप्त नहीं होगा। ऐसे विचारसे दीक्षा लेनेमें उद्युक्त हुई कन्याको देखकर माता पितादिक स्वजन दुःखित हुए हैं । उन्नत विचारवाली कन्याको संसारभययुक्त देखकर वे इस प्रकार उपदेश देने लगे-" हे उत्तम कन्ये, तू कमलके समान कोमल है। तेरे हाथ कोमल पल्लवके समान सुंदर हैं, तेरा मुख चंद्रमासमान है, तेरे चरण कमल जैसे मृदु हैं, और तेरा मीठा ध्वनि सबको बडा प्रिय है। तेरा यह कोमल शरीर कहां और यह अत्यंत दुःसाध्य तप कहां। यह तेरा तपके लिये उद्यत होना दांतोंसे लोहेके चने चबानेके समान है। यदि तुझे दीक्षा लेनाही हैं तो अभी कुछ काल स्थिर रहो तुम आर्यिकाके पास रहकर हमेशा शास्त्रोंको सुनो। पुग्योदयसे तेरा मनोरथ कदाचित् पूर्ण हो जायगा। अर्थात् युधिष्ठिरकी प्राप्ति होगी " ऐसा पुण्यवान् युधिष्ठिर स्वल्प आयुवाला नहीं हो सकता है। यदि वह जीवित हो तो उसके साथ तेरा विवाह हो जायगा। हे सुवासिनी, उसके साथ सुखोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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