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(२८) अतिशय आग्रहसे अर्जुन वहां पांच वर्षतक रहा । तत्पश्चात् वह सुतार, गन्धर्व आदि मित्रों तथा चित्राङ्ग आदि योग्य सौ शिष्योंके साथ कालिञ्जर वनमें वापिस आगया और युधिष्ठिर आदि बन्धुओंसे मिलकर अतिशय प्रसन्न हुआ।
सहायवनमें चित्राङ्गदद्वारा दुर्योधनका बन्धन किसी समय दुर्योधन सहायवनमें प्राप्त हुए पाण्डवोंका समाचार जानकर उन्हें मारनेके लिये सेनाके साथ वहां पहुंचा। किसी प्रकार नारद ऋषिसे इसका संकेत पाकर चित्राङ्ग विद्याधर युद्ध में प्रवृत्त हुआ। तब चित्राङ्ग और दुर्योधनके बीच भयानक युद्ध हुआ । अन्तमें चित्राङ्गने उसे नागपाशसे बांध लिया। वह उसे रथमें बैठाकर अपने नगरकी ओर जाने में तत्पर हुआ । इधर दुयाधनकी पत्नी भानुमती इस घटनासे दुखी होकर रोने लगी। उसके रुदनको देखकर भीष्म पितामहने सान्त्वन देते हुए युधिष्ठिरकी शरणमें जानेके लिये कहा । तदनुसार उनके पास जाकर भानुमती द्वारा पतिभिक्षा मांगनेपर युधिष्ठिरने अर्जुनसे मरनेके पहिलेही दुर्योधनको छुड़ाकर लाने के लिये कहा । युधिष्ठिरकी आज्ञा पाकर अर्जुन रथमें बैठकर चल दिया और युद्धपूर्वक उन विद्याधरोंसे दुर्योधनको छुडाकर ले आया वह दुर्योधनने युधिष्ठिरकी स्तुति कर क्षमायाचना की और वह अपने स्थानको वापिस चला गयाँ ।
दुर्योधनको अर्जुन द्वारा बन्धनमुक्त कराये जानेका अपमान असह्य हुआ। उसने इस दुखकी शान्ति के लिये यह घोषणा कराई कि जो पाण्डवोंको शीघ्र मारकर मेरे अपमानजनित दुखको दूर करेगा उसके लिये मैं आधा राज्य दूंगा। इस घोषणाको सुनकर कनकध्वज राजाने सातवें दिन पाण्डवोंको मारनेका अपना निश्चय प्रगट किया। उन्हें न मार सकने पर उसने स्वयं अग्निमें जल मरनेकी प्रतिज्ञा की। इस प्रतिज्ञाकी पूर्तिके लिये वह 'कृत्या' विद्या सिद्ध करनेके लिये उद्यत हुआ।
( जैसे-विशालाक्षतनय चन्द्रशेखर, रथनूपुर, विद्युत्क्रम, इन्द्र, विद्युन्माली आदि नाम ) वृत्तान्त प्रायः प्रस्तुत पाण्डवपुराणकेही समान पाया जाता है ( देखिये सर्ग ८, श्लोक १८५-३९८ )।
१ यह वृत्तान्त हरिवंशपुराणमें नहीं पाया जाता । दे. प्र. पाण्डवचरित्र ( ९, ८७-१३९ ) में दुर्योधनके छुडानेका वृत्तान्त इसीसे मिलता-जुलता पाया जाता है ।
चम्पूभारतके अनुसार जब पाण्डव द्वैत बनमें पहुंचे थे तब दुर्योधन उन्हें अपनी साम्राज्यलक्ष्मी दिख• लानेके लिये निज गोकुल-निरीक्षणके मिषसे वहां गया था। उस समय उसके पाण्डवोंको तिरस्कृत करनेके विचारको देखकर इन्द्रकी आज्ञासे चित्रसेन नामक गन्धर्वराजने सेनाको क्षुभित करके उसे पाशोंसे बांध
और आकाशमार्गसे लेकर चल दिया । तब इससे विलाप करती हुई उसकी स्त्रियां युधिष्ठरके शरणमें आई। उनको शरणागत आया देखकर युधिष्ठिरने दुर्योधनको बन्धनमुक्त करानेके लिये भीमादिकको आज्ञा दी। तब भीमादिकने जाकर गन्धर्वोसे घोर युद्ध किया और दुर्योधनको उनसे छुड़ाकर युधिष्ठिरके समीप लाकर उपस्थित किया । चं. भा. ५, ४७-६४.
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