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(२७) निवास करते हुए कालिञ्जर वनमें पहुंचे।
अर्जुनका विजयार्ध पर्वतपर जाना यहां अर्जुन मनोहर नामक पर्वतपर चढ़कर बोला कि यदि इस पर्वतपर कोई देव, मनुष्य अथवा विद्याधर हो तो मुझे इष्टसिद्धिका उपाय बतलावे । तब वहां आकाशवाणीसे सुना गया कि " तू विजयार्ध पर्वतपर जा, वहां तुझे जयलक्ष्मी सिद्ध होगी । वहां पांच वर्ष रहने के पश्चात् बन्धु
ओंसे मिलाफ होगा।" इतने मेंही उसे प्रचंड धनुषको धारण करनेवाला एक भयानक भील दिखाई दिया । अर्जुनने उससे तिरस्कारपूर्वक धनुष मांगा । इससे वह क्रोधित होकर युद्ध करने लगा । अर्जुनने उसका घात करने के लिये जितने बाण छोड़े उन सभीको भीलने निष्फल कर दिया । अन्तमें अर्जुनने उसे अजय्य समझकर बाहयुद्ध किया। उसके पैरोंको पकड़कर शिरके चारों ओर घुमाते हुए वह पृथ्वीपर पटकनाही चाहता था कि उसने कृत्रिम भीलके रूपको छोड़कर अपना यथार्थ स्वरूप प्रकट कर दिया और अर्जुनको प्रणाम कर प्रसन्नतापूर्वक वर मांगनेको कहा। अर्जुनने उसे अपना सारथी बनानेकी अभिलाषा प्रगट की। उसने इसे स्वीकार कर लिया। अर्जुनके पूछने पर उसने अपना परिचय इस प्रकार दिया- विजयाध पर्वतपर स्थित दक्षिण श्रेणीमें रथनूपुर नामका नगर है । उसके स्वामी विद्युत्प्रभ राजाके इन्द्र और विद्युन्माली ये दो पुत्र हैं। उसने विरक्त होकर इन्द्रको राज्य दिया और स्वयं जिनदीक्षा धारण की । विद्युन्मालीको युवराज पद प्राप्त हुआ था । यह पुरवासियोंकी स्त्रियों और धन आदिका अपहरण कर उन्हें कष्ट देता था। इन्द्रके समझानेपर उसे शान्तिके बदले क्रोधही अधिक हुआ । वह रथनूपुरको छोड़कर स्वर्णपुरमें रहने लगा । इन्द्र उससे सन्तापित होकर दुःखी रहने लगा । मैं इसी इन्द्रका विद्याधर सेवक हूं। मेरा नाम चन्द्रशेखर और मेरे पिताका नाम विशालाक्ष है। नैमित्तिकके कथनानुसार मैं यहां इन्द्रके शत्रुओंके बिनाशार्थ आपकी अपेक्षा कर रहा था। इस प्रकार अपना परिचय देकर वह चन्द्रशेखर विद्याधर अर्जुनको विमानमें बैठाकर विजयाध पर्वतपर ले गया । वहां पहुंचकर अर्जुनने इन्द्रले साथ रहकर उसके शत्रुओंको पराजित किया और राज्यको निष्कण्टक कर दियो । विद्याधरोंके
१ ह. पु. ४६, ३-७. ( यहां इस वनका नाम कालांजला अटवी बतलाया गया है ) ।
२ हरिवंशपुराणमें यह कथानक निम्न प्रकार है-कालांजला अटवीमें असुरोद्गीत किंनरोद्गीत (ह. पु. २२-९८) नगरसे अपनी प्रिया कुसुमावतीके साथ एक सुतार नामक विद्याधर आया था। उसने शाबर विद्यासे युक्त होकर भीलका वेष धारण किया था । अर्जुनने उसे इस वेषमें स्त्रीके साथ क्रीडा करते हुए देखा । परस्पर दर्शन होनेपर अकस्मात् इन दोनोंमें विषम युद्ध छिड़ गया । अर्जुनने वाहुयुद्धमें उसके वक्षस्थलमें दृढ़मुष्टिका घात किया। तब कुसुमावती द्वारा पतिभिक्षा मांगनेपर अर्जुनने उसे छोड़ दिया । वह अर्जुनको प्रणाम कर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें चला गया ( ४६, ८-१३ ) । यहां इन्द्र विद्याधरका कोई उल्लेख नहीं किया गया।
देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्रमें पर्वतका नाम गन्धमादन ( ८-१८५ ) बतलाया गया है । शेष सब
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