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________________ २७४ पाण्डवपुराणम् आसनं शयनं यानं निघसो वसनातिता । सर्वमेतद्धि सुप्रापमासीत्तेषां वृषोदयात् ॥४२ विक्रमाक्रान्तदिक्चक्राः सुक्रमाः क्रमतो नृपाः। चेक्रीयन्ते सपर्यां च वर्या वर्यजिनेशिनः॥ सपुण्याः क्रमतः प्रापुर्भूपाः पुण्यद्रुमं वनम् । पुण्यद्रुमैः समाकीर्ण विस्तीर्ण पूर्णशोभया॥ वनमध्ये शुभाभोगाः शरदभ्रनिभाः शुभाः। शातकुम्भसुकुम्मैश्च शोभिता व्योमसंगताः॥ ध्वनइन्दुभिसद्ध्वाना जयकोलाहलाकुलाः। अमला विपुला भव्यैर्भूषिता भूषणाङ्कितैः॥४६ आसेदिरे सुप्रासादाः सदानन्दाकराः सदा। पाण्डवैः प्रीतचेतस्कैर्धर्मामृतसुपायिभिः ॥४७ पाण्डुपुत्राः पवित्रास्ते मात्रा चित्रसुभित्तिकान् । जिनागारान्समावीक्ष्य तदन्तर्विविशुर्मदा॥ हटद्धाटककोटीभिर्घटिताः सुघटाः शुभाः। संजाघटति यत्रस्थाः सञ्चेतांसि सुदेहिनाम् ॥४९ स्वार्णरूप्या सुरूपाभाः पावनाः परमोदयाः। प्रतिमाः प्रेक्ष्य ते प्रीतिमापुः पावनपुण्यकाः।। ततः पुष्पफलायैस्ते चायन्ते स्म शुभार्चनैः। जिनान्यतो जनानां हि जायते पुण्यजीवनम् ॥ नत्वा स्तुतिशतैः स्तुत्वा प्रानमनम्रमस्तकाः। पाण्डवास्ताञ्जिनान्युक्त्या सद्धर्मामृतलालसाः वन्दित्वा सद्गुरूनगम्यान्गुणगौरवसंगतान् । गम्भीरास्तत्र पप्रच्छुर्जिनपूजाफलं च ते ॥५३ तया प्राप्त होते थे॥४१-४२॥ पराक्रमसे दिशाओंका समूह जिन्होंने व्याप्त किया है, जो नीतिपद्धतिसे युक्त हैं ऐसे पाण्डव राजा क्रमसे प्रवास कर रहे थे और जिनमंदिरमें श्रेष्ठ जिनेश्वरोंका पूजन बार बार करते थे ॥ ४३ ॥ वे पुण्यवान् पाण्डव राजा क्रमसे पुण्यद्रुम नामके वनमें आये, वह पुण्यद्रमवन पवित्र वृक्षोंसे व्याप्त था और सर्वत्र उसकी पूर्ण शोभा विस्तीर्ण हुई थी। उस वनके मध्यमें शुभ विस्तारवाले, शरन्मेघके समान शुभ्र, शुभ सुवर्णकुंभोंसे युक्त, सुंदर, आकाशमें जिनके शिखर हैं, ऐसे अनेक जिनमंदिर थे। उनमें शब्द करनेवाले नगारे बजते थे, जयजयकारके शब्द हो रहे थे। अलंकारोंसे मंडित भव्योंसे वे सुंदर दीखते थे। वे जिनमंदिर निर्मल और विस्तीर्ण थे, सदैव भव्योंके मनको आनंदित करते थे। धर्मामृत प्राशन करनेवाले प्रेमयुक्त पाण्डव उनके समीप गये। चित्रोंसे सुंदर दीवालवाले उन मंदिरोंमें पवित्र पाण्डुपुत्रोंने माता कुन्तीके साथ आनंदसे प्रवेश किया ॥ ४४-४८ ॥ उन मंदिरोंमें चमकनेवाले सुवर्णोसे बनाई हुई, सुंदर रचनायुक्त, शुभ, ऐसी जिन प्रतिमायें भव्योंके मनको हरण करती थी। सुवर्ण और रूपोंसे बनी हुई, सुंदररूप और कान्तिसे युक्त, पवित्र, उत्कृष्ट वैभवशाली जिनप्रतिमाओंको देखकर वे पवित्र पुण्यवाले पाण्डव हर्षित हुए ॥ ४९-५० ॥ तदनंतर वे पुष्पफलादिक शुभ पूजाद्रव्योंके द्वारा जिनेश्वरोंकी पूजा करने लगे, जिससे कि जीवोंको पवित्र जीवन प्राप्त होता है। सद्धर्मामृतकी अभिलाषा धारण करनेवाले, नम्र मस्तक, वे पाण्डव जिनभगवानको नमस्कार कर तथा युक्तिसे सैंकडो स्तुतियोंद्वारा स्तुति कर अतिशय नम्र हुए ॥५१-५२॥ अनंतर गुणोंके गौरवोंसे युक्त, आदरणीय सद्गुरुओंको गंभीर पाण्डवोंने वंदन किया और उन्होंने जिनपूजनका फल पूछा ॥ ५३ ॥ मुनिराज उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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