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त्रयोदशं पर्व
२७५ मुनिर्वाचं जगौ भव्याः श्रृणुतार्चनसत्फलम् । यार्चा चतुरचित्तानां ददाति परमं पदम् ॥ रजोमुक्त्यै भवेद्धारा वारा दत्ता जिनाग्रतः । सौगन्ध्याय शुभामोदो गन्धो देहे सुयुक्तिभिः अक्षता अक्षता दत्ताः कुर्वन्त्यक्षतसुश्रियम् । पुष्पस्रजः सृजन्त्याशु स्वास्रजं देहिनां सदा॥ उमास्वाम्याय नैवेद्यं दत्तं साद्देवपादयोः। दीपो दीप्तिकरः पुंसां जिनस्याग्रेऽवतारितः ॥५७ विश्वनेत्रोत्सवाय स्यात्सुधूपोऽगुरुसंभवः । फलं फलति संफुल्लां मुक्तिलक्ष्मी सुलक्षिताम् ॥५८ अनर्येण महार्येण ये यजन्ति जिनेश्वरान् । ते प्राप्नुवन्ति चानयं पदं देवनरार्चितम्।।५९ इति पूजाफलं श्रुत्वा श्रावकास्ते महाश्रियः। जहर्घहर्षपूर्णाङ्गा आमर्षोज्झितमानसाः॥६० ततस्ते क्षान्तिका वीक्ष्य समक्षं लक्षणान्विताः। प्रवन्ध पुरतस्तस्थुः कुन्ती तत्पार्श्वमास्थिता।। तत्रैका लक्षणैर्लक्ष्या चञ्चलाक्षा सुपक्ष्मला। कटाक्षक्षेपणे दक्षा मञ्ज क्षेमक्षमावहा ॥६२ क्षपणाक्षीणसर्वाङ्गा चररक्षकरक्षिता । शिक्षमाणाक्षराण्याशु कुन्त्यैक्षि वरकन्यका ॥६३ ।। तदा कुन्ती समुत्तुङ्गा क्षान्तिकां संयमश्रियम् । अप्राक्षीत्क्षान्तिकेऽसूणे नत्वा विज्ञप्तिमाश्रिता
दिया-हे भव्य पूजनका शुभ फल सुनो, यह जिनपूजन चतुर-चित्तवालोंको उत्तम पद देती है। जिनेश्वरके आगे दी हुई जलधारा ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप धूलिको मिटा देती है। शुभ गंधवाला गंधद्रव्य-चन्दनादिक, युक्तिसे जिनेश्वरके चरणोंपर लगानेसे देहमें (पूजकके) सुगंधता उत्पन्न होती है। जिनचरणोंके आगे अखंड अक्षता अर्पण करनेपर वे अखंड शुभलक्ष्मीको अर्पण करती हैं। जिनचरणोंके आगे अर्पण की हुई पुष्पमालायें हमेशा प्राणियोंको स्वर्गकी मालाओंको अर्पण करती हैं। जिनचरणोंके आगे दिया हुआ नैवेद्य मुक्तिलक्ष्मीका स्वामित्व प्रदान करता है। जिनेश्वरके आगे अवतरण किया हुआ दीप भव्योंके अंगमें कांति उत्पन्न करता है। अगुरुसे उत्पन्न हुआ सुगंधित धूप जगतके नेत्रोंको आनंदित करता है। जिन चरणोंके आगे अर्पण किया गया सुफल ज्ञानादिगुणोंसे विकसित मुक्तिलक्ष्मीको देता है। अनर्थ्य-अमूल्य ऐसे महाय॑से ( जलादि अष्टद्रव्योंके समूहसे) जो भव्य जिनेश्वरको पूजते हैं वे देव और मनुष्योसें पूजित अनर्घ्यपद-मुक्तिपद प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार पूजाका फल सुनकर जिनका मन क्रोधसे रहित हैं, जिनका शरीर हर्षसे पूर्ण है अर्थात् रोमांचयुक्त है ऐसे वे महालक्ष्मीसंपन्न श्रावक-पाण्डव आनंदित हो गये" ॥ ५४-६०॥ तदनंतर शुभ-लक्षणवाले वे पाण्डव आर्यिकाको समक्ष देखकर और वन्दन कर उसके आगे बैठ गये। कुन्ती आर्यिकाके पास बैठ गई। उस जिनमंदिरमें कुन्तीने एक उत्तम कन्या देखी । वह उत्तमलक्षणोंसे युक्त थी, उसकी आंखें चंचल थीं, उसकी पलकें सुंदर थीं, वह कन्या शीघ्र कटाक्ष फेकनेमें चतुर थी, और हितकारक क्षमाको उसने धारण किया था। उपवासोंसे उसका सर्व शरीर क्षीण हुआ था। उसकी गुप्तपुरुष रक्षा करते थे । वह अक्षराभ्यास करती थी ॥ ६१-६३ ॥ उत्तुंग विचारवाली कुन्तीने संयमकी लक्ष्मीको
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