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त्रयोदशं पर्व
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ईदृशां सुदृशीं मारावस्थासंस्थायिनीं सुताम्। माता संवीक्ष्य पप्रच्छाज्ञासीत्तच्चेष्टितं तदा || निवेदितस्तया भूपस्तच्चेष्टां क्लेशकारिणीम् । उक्त्वा तान्मन्त्रिभिस्तूर्णं समाह्वयत पाण्डवान् ।। आगता मिलिता राज्ञा ते प्राप्तशुभभोजनाः । मानिता वरवस्त्राद्यैस्तत्र भेजुः परां स्थितिम् ।। ततोऽसौ धर्मपुत्रं तं संप्रार्थ्यार्थसमन्विताम् । सुतां तस्मै ददौ प्रीत्या कमलां विधिनामलाम् ।। ततः सोऽपि तया साकं भेजे भोगान्सुभासुरान् । दिनानि कतिचित्तत्र स्थितः कुन्त्या स्वबान्धवैः एकदा धर्मपुत्रं तं वर्णोऽप्राक्षीच्छृणु प्रभो । कस्त्वं कैषा नरा एते के कुतोऽत्र समागताः । समाकर्ण्य नृपोऽवादीद्वर्णाकर्णय कौतुकम् । वयं पाण्डुसुता दग्धाः कौरवैर्निर्गता गृहात् ॥ द्वारावत्यां वरोऽस्माकं समुद्रविजयो महान्। मातुलस्तत्सुतो नेमिस्तीर्थकृत्सुरसंस्तुतः ॥ ३८ वैकुण्ठबलदेव चास्माकं तौ स्वजनौ मतौ । वयं तद्दर्शनोत्कण्ठास्तत्राटिष्याम उल्बणाः ॥ ३९ इति सर्वस्वसंबन्धमभिधाय समुद्यताः । मुक्त्वा तां तत्र निर्जग्मुः सवृषाः सत्यवादिनः || ४० देशे देशे महीयन्ते महान्तो महितैर्नरैः । पाण्डवाः परमोत्साहाः सदाचारविचारिणः ॥ ४१
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आखोंवाली अपनी कन्या इस प्रकार कामकी अवस्था से पीडित हुई है ऐसा माताने देखकर उसे सब हाल पूछा तब उसकी दशाका उसे ज्ञान हो गया । कमलाकी माताने उसकी दुःखद चेष्टाका राजासे निवेदन किया । राजाने मंत्रियोंको कन्याका सब हाल कह दिया और मंत्रियों के द्वारा उसने पांडवोंको बुलाया ।। ३१ - ३२ ॥ पाण्डव आगये और राजासे मिले । राजाने उत्तम भोजन और ऊंचे वस्त्रादिकोंसे उनका सत्कार किया। वे वहां अच्छी तरहसे रहे । तदनंतर राजाने धर्मपुत्री विवाह के लिये प्रार्थना की और प्रेमसे विवाहविधिके अनुसार अपनी निर्मल - सुंदर कन्या धर्मराजाको अर्पण की ॥ ३३ - ३४ ॥ तदनंतर वह धर्मराजाभी उसके साथ उत्कृष्ट भोगोंको भोगने लगा | वहां कुन्तीमाता और अपने बांधवोंके साथ वे कुछ दिनतक ठहरे ॥ ३५ ॥ एक दिन वर्ण राजाने धर्मराजाको पूछा हे प्रभो, आप कौन हैं ? यह स्त्री कौन है ? तथा ये पुरुष कौन हैं ? आप 'सब लोग यहां कहांसे आगये हैं ? प्रश्न सुनकर धर्मराज बोले, कि " हे वर्णराजन्, हमारी कौतुकयुक्त वार्ता सुनो। हम पाण्डुराजाके पुत्र हैं । हमको कौरवोंने लाक्षागृह में जलानेका विचार किया, हम वहांसे-लाक्षागृहसे निकले, द्वारावती नगरी में हमारे श्रेष्ठ मामा समुद्रविजय रहते हैं । उनके पुत्र नेमिप्रभु तीर्थकर हैं, देव हमेशा उनकी स्तुति करते हैं । वैकुण्ठ- श्रीकृष्ण, और बलदेव
हमारे स्वजन हैं। हम उनके दर्शनकी उत्कंठासे उत्तेजित होकर द्वारिका नगरीको जा रहे हैं" । इस प्रकार से अपना संपूर्ण संबंध कहकर वे जानेके लिये उद्युक्त हुए । कमला राजकन्याको उसके पिता के घरमें छोड़कर सत्यवादी और धर्मपरायण वे पाण्डव बहांसे चले गये ॥ ३६-४० ॥ परमोत्साही, सदाचारी और विचारवान् महापुरुष पाण्डव प्रत्येक देशमें पूज्यपुरुषोंसे पूजे जाते थे। उनके पुण्योदयसे आसन, शय्या, यान, वाहन, आहार, वस्त्रआदि सर्व पदार्थ उनको सुलभ
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