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________________ २७२ पाण्डवपुराणम् स्वलन्ती सा नितम्बस्य भारेण कटिमेखलाम् । दधाना मन्दसद्गत्या जयन्ती दन्तिनीगतिम् जिनेन्द्रमवमस्यान्तः सा प्रविश्य सुखोन्नता । ववन्दे विधिना देवान्प्रतिकृत्या समास्थितान् ।। सुगन्धैर्वन्धुरैर्गन्धैः शुद्धैर्लब्धमधुव्रतैः । चन्दनैश्वर्चयामास सा जिनेन्द्रपदाम्बुजम् ॥२२ मन्दारमल्लिकाकम्रकेतकीकुन्दपङ्कजैः । चम्पकैश्वर्चते स्मासौ जिनेन्द्रपदपङ्कजम् ॥ २३ धूवैर्धूपितदिक्चक्रः फलैः प्रविपुलैर्जिनम् । संपूज्य निर्गताद्राक्षीत्पाण्डवान्पावनान्परान् ||२४ तत्र स्थितं स्थिरं धाम्ना धर्मपुत्रं सुरूपकम् । विलोक्यातकयचूर्णं तद्रूपेण वशीकृता ॥ २५ कोऽयं सुरः सुरेशो वा फणीशो रजनीकरः । सुरो वेमे नराः केऽत्र सुराः किं सूरसत्प्रभाः ।। आज्ञातं नेत्रनिर्मेषैर्नरोऽयं कोऽपि सत्प्रभः । विनानेन कथं प्राणान्दधे धृतित्रिवर्जिता ॥ २७ इति स्मरशरैर्भिन्ना प्रस्खलत्पदपङ्कजा । गृहं गन्तुं न शेके सा हतेव हतमानसा ||२८सखीभिर्वाह्यमाना सा समाप सदनं हठात् । सालसा तत्र नो भुङक्ते न वाक्त हसति क्षणात् ।। ईक्षते क्षणतः खिन्ना रोदिति स्वपिति स्वयम् । उत्तिष्ठते स्वयं स्थित्वा हसित्वा पतति स्वयम् ।। किया था । नितंबके भारसे स्खलित होनेवाली अर्थात् मन्द मन्द गमन करनेवाली, कमर में करधौनी धारण करनेवाली, तथा मन्द और सुंदर गतिसे हाथिनी की गतिको जीतनेवाली, अतिशय सुखी वह कमला सखियों के साथ जिनमंदिरमें आई । वहां उसने प्रतिबिंबके रूपमें विराजमान जिनेश्वरोंको विधिसे वंदन किया ॥ १९ - २१ ॥ भ्रमर जिसके ऊपर गुंजारव कर रहे हैं, ऐसे शुद्ध सुगंधित मनोहर गंधवाले पदार्थोंसे तथा चन्दनसे उसने जिनेन्द्रके पदकमल पूजे ॥ २२ ॥ उसने मंदार, मल्लिका, सुंदर केवडा, कुन्द, कमल, और चम्पक आदि पुष्पोंसे जिनेश्वरके पदकमल पूजे । सर्व दिशाओंको सुगंधित करनेवाले धूपोंसे तथा विपुलफलोंसे जिनेश्वरोंकी पूजा करके जिनमंदिरसे निकली तब उसने उत्तम पवित्र पाण्डवों को देखा || २३-२४ | उस मंदिरमें ठहरे हुए, तेजसे स्थिर, सुंदर धर्मपुत्रको देखकर उसके रूपसे वह शीघ्र वश हुई और इस प्रकार विचार करने लगी । क्या यह कोई देव अथवा देवेन्द्र है ? अथवा यह धरणेन्द्र, किंवा चन्द्र अथवा सूर्य है ! तथा यहां ये अन्य पुरुषभी क्या देव हैं ? इनकी कान्ति सूर्यके समान उज्ज्वल दीखती है। हां, मैने जान लिया, इसके पलकोंकी चंचलतासे यह कोई उत्तम कांतिवाला पुरुष है। इसके बिना धैर्यहीन मैं प्राणोंको कैसे धारण कर सकूंगी। इस प्रकार मदनके बाणोंसे वह राजकन्या विद्ध हुई । उसके चरणकमल चलते समय स्खलित हो रहे थे । उसका मन ठिकानेपर नहीं था, मानो वह हत होगई हो। वह अपने घर जानेमें असमर्थ हुई || २५ - २८ ॥ सखियां जबरदस्ती से उसे घर ले गयीं । कामकी अलसतासे वह न भोजन करती थी न बोलती थी और न हसती थी । वह क्षणमें देखती थी, क्षण में खिन्न होती थी और क्षणमें रोती थी तथा वह क्षणमें सो जाती थी । दह क्षणमें ऊठकर स्वयं खडी हो जाती थी तथा हंसकर स्वयं जमीनपर गिरती थी ॥ २९-३० ॥ सुंदर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002721
Book TitlePandava Puranam
Original Sutra AuthorShubhachandra Acharya
AuthorJindas Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1954
Total Pages576
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, Story, & Biography
File Size15 MB
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