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त्रयोदशं पर्व
२७१ सा दूरतो ददर्शाशु प्रासादं विशदात्मिका । सुधाधौतं समृद्धं च शातकुम्भसुकुम्भकम् ॥११ तस्या जिगमिषा तत्र वन्दितुं श्रीजिनेश्वरान् । अभूत्तावत्समापुस्ते पाण्डवा जिनमन्दिरम्॥ दृष्ट्वा चान्द्रप्रभ चैत्यं स्नात्वा ते प्रासुकैर्जलैः । निस्सहीति पदं प्राप्ताः पठन्तो विविशुहम्।। संपूज्य जिनपं तत्र वन्दित्वा स्तोतुमुद्यताः । विचित्रैःस्तोत्रमन्त्रैस्ते पविगैः परमोदयः ॥१४ जिनेन्द्र जय सजन्तुजीवन त्वं जयोद्यत । अजय्य जय द्विट्तेजो जय जन्मापहानिशम् ॥१५ चन्द्रप्रभ त्वया क्षिप्तश्चन्द्रमा भासया सदा । लाञ्छनच्छलतः पादेऽन्यथा किं सोज्वतिष्ठते।। केवलज्ञाननेगाढ्यो जगदुद्धरणक्षमः । त्वं पाह्यस्मान्कृपापारमितः पापाजगद्गुरो ॥१७ स्तुत्वेति जनितानन्दास्तेऽमन्दानन्दभूषिताः। यावचिष्ठान्ति तत्रायात्कमला वन्दितुं जिनम् ।। सखीभिः सह संफुल्लनयना तारहारिका । नदन्नपुरसंनादनिर्जिताखिलकोकिला ।।१९
लज्जाभारसे भूषित, कौतुकवाली राजकन्याने अपनी सखियोंके साथ उस उपवनमें झूलेपर बैठकर क्रीडा की। शीघ्रही उसने दूरसे चन्द्रप्रभजिनका मंदिर देखा वह मानो सुधाके द्वारा धोया हुआ अर्थात् शुभ्र था, वैभवसंपन्न और सुवर्णकलशोंसे रमणीय दीखता था। राजकन्याके मनमें निर्मल भक्तिभाव उत्पन्न हुआ, उसे जिनमंदिरमें जिनवन्दनके लिये जानेकी इच्छा उत्पन्न हुई। इतनेमें जिनमंदिरके पास पाण्डव आगये। उन्होंने प्रासुक जलसे स्नान किया और श्रीजिनचन्द्रप्रभकी प्रतिमा देखकर 'निस्सही' ऐसे शब्द बोलते हुए जिनमंदिरमें प्रवेश किया ।। ८-१३ ॥ पाण्डवोंने मंदिरमें
चन्द्रप्रभ जिनकी पूजा की तथा नमस्कार कर वे पवित्र प्रभुके अनंतज्ञानादिवैभवके प्रतिपादक नानाविधस्तोत्र-मन्त्रोंके द्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगे। “हे प्रभो आपकी जय हो, आप उत्तम भव्यजीवोंका जीवन हो, अर्थात् आपके उपदेशसे हितमार्ग प्राप्त कर भव्यजीव मुक्त होकर अनंतसुखी शुद्ध-चैतन्यमय होते हैं। भव्योंको जयप्राप्ति करानेमें आप सदा उद्युक्त हैं। आप अजय्य हैं अर्थात् मोह आपको नहीं जीत सका। आप कर्मशत्रुके तेजको जीतनेवाले हैं। आपने अपना और भव्योंका जन्म-चतुर्गतिभ्रमण मिटाया है। आपकी हमेशा जय हो। हे भगवन, चंद्रप्रभ, आपने अपने भामण्डलसे चन्द्रका हमेशाके लिये पराजय किया है, अन्यथा लांछनके मिषसे वह आपके चरणोंमे क्यों रहता ? आपके चरणोंका आश्रय क्यों लेता ? हे प्रभो, आप केवल ज्ञानरूप नेत्रको धारण करते हैं और भवमेंसे जगत्का उद्धार करनेमें समर्थ हैं । आपने करुणाका दुसरा किनारा प्राप्त किया है अर्थात् आपमें अपार करुणा है । हे प्रभो, हे जगद्गुरो, आप हमारी पापसे रक्षा कीजिये " ॥ १४-१७ ॥ इस प्रकार स्तुति करनेसे पाण्डवोंको अतिशय आनंद हुआ, अमन्द आनंदसे वे भूषित हो गये । वे मंदिरमें स्तुति करके बैठे थे इतनेमें कमला राजकन्या जिनदेवको वन्दन करने के लिये आई ॥ १८ ॥ वह प्रफुल्ल नयन-नेत्रवाली तथा तेजस्वी हार धारण करनेवाली थी। रुनझुन करनेवाले बिछुओं के मनोहर शब्दसे उसने संपूर्ण कोकिलाओंको पराजित
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